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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आवश्यकता है। क्योंकि यदि मुनिधर्म के सत्य स्वरूप को उजागर नहीं किया गया, दिनों में मुनिधर्म नाम की वस्तु ही नहीं रह जायेंगी ।
इस प्रबन्ध की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न प्रकरणों में तुलनात्मक अध्ययन करने पर अपना स्पष्ट निर्णय भी दिया है, जिससे पाठक भ्रमित नहीं हुआ है। तथा मुनिधर्म के सही स्वरूप का दिग्दर्श कराते हुए उसकी शिथिलताओं का भी स्पष्ट रूप से बड़े साहस के साथ विवेचन किया है, जिससे लेखक को खतरा भी हो सकता है, लेकिन इसकी तनिक भी परवाह किये बिना अपना कर्तव्य निभाया है।
लेखक अभी उदीयमान नक्षत्र है। यदि इसी प्रकार कठोर परिश्रम व निर्भीकता द्वारा कार्य करता गया, तो एक दिन सूर्य बनकर समाज को प्रकाश देगा- इसमें सन्देह नहीं । इनका यह महान प्रयास स्तुत्य व प्रशंसा के योग्य है।
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कुछ
पं. रूपचंद जैन, सेवानिवृत्त प्र. अ. एम.ए.. वी. टी. साहित्यरत्न, जयपुर।
प्रशंसनीय सफल प्रयास
"अहो ! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं।" इनमें शिथिलता रखने से अन्य धर्म किस प्रकार होगा ?" पण्डित प्रवर टोडरमलजी के ये वाक्य बारम्बार चित्त को आन्दोलित करते हुए आगमालोक में इन तीनों के स्वरूप को हस्तामलवत स्पष्ट बताने वाले साहित्य सृजन की आवश्यकता का सतत बोध दे रहे हैं।
इस सन्दर्भ में "जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा" शोध-प्रबन्ध के माध्यम से भाई श्री डॉ. योगेश जी का यह सफल प्रयास भूरि-भूरि प्रशंसनीय है तथा साधुओं की आचारवृत्ति के बोधार्थ प्रस्तुत प्रबन्ध पूर्णतया सक्षम है। मुखपृष्ठ व अन्तिम कवरपृष्ठ के दृश्य भी वीतरागी गुरुओं के प्रति चित्त को स्वयमेव श्रद्धावनत बनाते हैं।
सर्व सुखार्थी जन निष्पक्ष भाव से वीतरागी श्रमणों का स्वरूप समझने हेतु इसका अध्ययन करें - आलोडन करें - इस भावना से अभिभूत होती हुयी लेखक के वृद्धिंगत उज्जवल भविष्य की कामना करती हूं।
ब्र. कल्पना बेन एम. ए.
ए- 4, बापूनगर, जयपुर