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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
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मुनि भक्ति की प्रतीक जैनधर्म के मोक्षमार्ग में मुनिधर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। मुनिधर्म का ज्ञान व उसको अंगीकार किए बिना मुक्ति नहीं, यह एक निर्विवाद सत्य है। परन्तु आज जैन समाज का उपद्रवग्रस्त वातावरण मुनिधर्म पर विचार-विमर्श के लिए अप्रत्यक्ष रोक लगाए हुए है, ताकि कुछ कलहप्रिय लोगों का अनाचार पनपता रहे। ऐसे लोगों की अज्ञानता को खुली चुनौती देते हुए मुनिधर्म का सांगोपांग व स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत शोध-प्रबंध में किया गया है। इस कृति का सम्पूर्ण समाज में समादर होगा ऐसा विश्वास है।
लेखक की मुनिभक्ति की प्रतीक इस पुस्तक का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार होना चाहिए।
सुन्दर व श्रेष्ठ कृति के लिए लेखक को कोटिशः बधाई।
___ अखिल बंसल, सम्पादक,समन्वय-वाणी,
ज्ञानवर्द्धन का पर्याप्त प्रमेय __ "जैनश्रमण : स्वरुप और समीक्षा" पुस्तक पढ़ीः पढ़कर आनन्द आ गया। आपने यह पुस्तक सुन्दर और मौलिक लिखी है; परिश्रम भी बहुत किया है। साध्वाचार पर दिगम्बर
और श्वेताम्बर ग्रन्थों का जगह-जगह तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है - यह अच्छी बात है। ज्ञानवर्द्धन का पर्याप्त प्रमेय भी दिया है। आज जो साधुओं में शिथिलाचार/अनाचार व्याप्त हैं, उस पर भी नामोल्लेख पूर्वक प्रकाश डाला है, यह साहसिक कदम है।
व्यवहारधर्म के तत्वार्थसूत्र में 2 भेद किये हैं, सागर, अनगार (वनवास)। आज तो यह दूसरा भेद लुप्त ही हो गया है। उसकी जगह महागार ( महाधिपति, मोटरादि परिग्रही) प्रचलित हो गया है। दूसरे भेद की प्रथम शर्त वनवास थी, इस केन्द्र/धुरी से श्रमण च्युत होने के कारण आचार भ्रष्ट हो गया है, और भ्रष्ट होता जाएगा। ____इन विचारणीय विषयों पर भी लिखकर यह लेखक बधाई का पात्र है। एतदर्थ शुभकामनाओं सहित।
रतनलाल कटारिया
केकडी भूतपूर्व सम्पादक, "जैन सन्देश"
एक महान प्रयास डॉ. योगेशचन्द्र जैन का "जैनथ्रमण : स्वरूप और समीक्षा" शोध-ग्रन्थ पढ़ा, व पढ़कर हार्दिक प्रसन्नता हुयी। वास्तव में इस समय में ऐसे पुस्तकों के प्रकाशन की अत्यधिक