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11. खलीन
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12. युग
13. कपित्थ -
29. ग्रीवोन्नमन
30. प्रणमन
14. शिरः प्रकंपित - कायोत्सर्ग में स्थित हुए जो शिर को कंपाते हैं उनके शिरः प्रकंपित
दोष होता है।
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15. मूकत्व -
16. अंगुलि -
17. भू विकार - जो कायोत्सर्ग से खड़े हुए भौहों को चलाते हैं, या पैरों की अंगुलियाँ नचाते हैं उनके भू विकार दोष होता है।
18. वारुणीपायी
19 से 28. दिशा अवलोकन
31. निष्ठीवन - 32. अंगमर्श -
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
लगान से पीडित हुए घोड़े के समान दांत कटकटाते हुए मस्तक को करके जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके खलीन दोष होता है।
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जुआ से पीड़ित हुए बैल के समान गर्दन पसार कर जो कायोत्सर्ग से स्थित होते हैं उनके यह युग नाम का दोष होता है ।
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जो कपित्थ-कैथें के फल के समान मुट्ठी को करके कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं उनके यह कपित्थ दोष होता है ।
कायोत्सर्ग में स्थित होकर जो मूक के समान मुखविहार व नाक सिकोड़ना करते हैं उनके मूकित नाम का दोष होता है।
जो कायोत्सर्ग से स्थित होकर अंगुलियों से गणना करते हैं उनके दोष होता है।
मदिरापायी के समान झूमते हुए जो कायोत्सर्ग करते हैं उनके वारुणीपायी दोष होता है।
कायोत्सर्ग से स्थित हुए दिशाओं का अवलोकन करना । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान, ऊर्ध्व और अधः- इन दश दिशाओं के निमित्त से दश दोष हो जाते हैं। ये दिशावलोकन दोष हैं।
कायोत्सर्ग में स्थित होकर गरदन को अधिक ऊँची करना यह ग्रीवा उन्नमन दोष है।
कायोत्सर्ग में स्थित हुए गरदन को अधिक झुकाना या प्रणाम करना यह प्रणमन दोष है।
कायोत्सर्ग में स्थित होकर खखारना, थूकना यह निष्ठीवन दोष है। कायोत्सर्ग में स्थित हुए शरीर का स्पर्श करना यह अंगमर्श दोष है।
कायोत्सर्ग करते समय इन बत्तीस दोषों का परिहार करना चाहिए।
इस प्रकार जैन श्रमण दुःखों का क्षय करने के लिए माया - प्रपंच से रहित, विशेषताओं से सहित, अपनी शक्ति के अनुरूप और अपनी बाल, युवा या वृद्धावस्था तथा अपने वीर्य के अनुरूप एवं काल के अनुरूप कायोत्सर्ग को करते हैं ।