Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 251
________________ 250 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा समाधि मरण में भक्ति नहीं है, उसका मरते समय समाधिपूर्वक मरण नहीं होता है।277 इस क्षपक के पास अधिक बोलने वाले आगम विरुद्ध भाषी या विकथा आदि करने वाले श्रमण या श्रावक नहीं जा सकते हैं। परिचारक मुनि क्षपक को ऐसा उपदेश सुनाते हैं कि, जिससे वे अपने चरित्र में पूर्णतया दृढ़ बने रहते हैं, रोग, वेदना आदि की व्याकुलता से अधीर नहीं हो पाते हैं। क्योंकि "विषय सुख का विरेचन कराने वाले और अमृतमय ये जिनवचन ही औषधि हैं। ये जरा-मरण और व्याधि से होने वाली वेदना को तथा सर्व दुखों को नष्ट करने वाले हैं।"278यदि कदाचित् क्षपक को वेदना की उग्रता हो तो उपर्युक्त स्थिति में कटु वचन न बोलकर विभिन्न कथाएं सुनाकर स्थिति करण करते हैं। आचार्य, क्षपक को आहार की गृद्धि से संयम की हानि व असंयम की वृद्धि दशति हैं। जिससे सुनकर वह सम्पूर्ण अभिलाषा का त्याग करके वैराग्य युक्त हो जाता है। तदनन्तर आचार्य आहार का क्रमशः त्याग कराते हुए, क्षपक को अत्यन्त क्षीण देखकर जल का भी त्याग करा देते हैं। परन्तु परिणामों में संक्लेश भाव न हो ऐसा कार्य ही किया जाता है। इस प्रकार शान्ति पूर्वक क्षपक की सविचार सल्लेखना हो जाती है। सहसा मृत्यु की स्थिति में अविचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहलाता है। इसमें आचार्य या साधु देश-काल के उपसर्ग के समय यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि यदि मेरा जीवन नहीं रहेगा, तो मेरे यह चतुर्विध आहार का त्याग है, और यदि उस देश काल में उपसर्ग का निवारण हो जाने पर जीवन का अस्तित्व रहता है तो मैं आहार ग्रहण करूँगा। जीवित रहने के सन्देह में ही इस प्रकार का प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार की सल्लेखना अकंपनाचार्य ने ग्रहण की थी। इस प्रकार छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के श्रमण पंडितमरण एवं क्षीणकषायी अयोग केवली भगवान पंडित-पंडित मरण करते हैं जिसको निर्वाण भी कहते हैं। सदोष श्रमण : दोष एक मानवीय वृत्ति है। अतः यह एक बहुत बड़ा विचारणीय अपराध नहीं है। मानव जाति के एक लम्बे जीवन में उतार/चढाव, गिरना/उठना यह तो होता ही रहता है। अतः यह उतना बड़ा अपराध नहीं है, जितना कि गिरकर भी उठने का प्रयत्न न करना तथा इससे भी बढ़कर जघन्य-तम अपराध यह है कि, गिरने के बाद उसमें संतुष्ट होकर और उसके औचित्य को सिद्ध करना और प्रसन्नचित्त होकर उस पतित परम्परा को प्रोत्साहित करते हुए प्रचार-प्रसार करना; यह मानवीय नैतिकता का त्रिकाल अक्षम्य जघन्यतम अपराध मैं समझता हूँ क्योंकि इसमें एक सम्पूर्ण आदर्शों की ही त्रिकाल के लिए समाधि होती है, और यह उस समय और भी ज्यादा महत्वपूर्ण चिन्तनीय है, जबकि वह अपराधी सार्वजनिक क्षेत्र का रहा हो। प्रत्येक प्रबुद्रवर्ग का यह नैतिक दायित्व है कि वह उन अपराधियों को सचेत करे और सन्मार्ग पर लाए। यदि कोई "छिद्रान्वेषी" कहकर आलोचित करे, तो वह इस शाब्दिक विशेषण को अपने लिए गौरवपूर्ण माने।

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