Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 312
________________ 311 उपसंहार है। वर्तमान काल में मेरे द्वारा किये गये श्रमण पर्यवेक्षण में मैंने पाया कि आज लगभग कोई भी ऐसा श्रमण नहीं दिखता जो जैनधर्म में कथित श्रमण स्वरूप में समाहित हो सके। यह बढ़ते हुए शिथिलाचार का परिणाम है। भक्तों की स्थिति यह है कि यह सब जानते हुए भी पूजते हैं एवं सम्मान देते हैं। इसके पीछे उनका तर्क यह रहता है कि ये "औरों से तो अच्छे हैं" या "पंचम काल" है इससे भ्रष्टाचारी श्रमणों को सम्मान मिल जाता है। जबकि इन तर्कों का जैनधर्म में कोई स्थान नहीं है। यहाँ तो गुण ही पूज्य हैं। जैन श्रमाणों के कहीं आंशिक दोष की अपेक्षा पुलाक, वकुश, कुशील आदि भेद किये हैं, तो आन्तरिक प्रशासन, शिक्षा, दीक्षा की अपेक्षा से आचार्य, उपाध्याय, भेद कर दिये गये हैं। इसी प्रकार विशिष्ट पुण्योदय अथवा पौरुष की अपेक्षा तीर्थंकर- श्रमण, गणधर, जिनकल्पी, स्थविर कल्पी आदि भेद किये गये हैं। इसी प्रकार निर्यापकाचार्य, बालाचार्य, आदि से भेद हो जाते हैं। गुणस्थानों की अपेक्षा, निर्जरा की अपेक्षा आदि से भेद हो जाते हैं। परन्तु इस सब में श्रामण्य की अपेक्षा भेद नहीं है। वे सभी समान रूप से पूज्यनीक एवं वंदनीक हैं। जैन श्रमण श्रद्रा को नगर बना और तप एवं संवर को उसकी आगल, क्षमा को दृढ परकोटा बना, और मन वचन काय की गुप्ति को किला, खाई और तोप बना आत्म- शक्ति को धनुप और ईर्या समिति को उसकी डोरी, धैर्य को उसकी मूंठ और सत्य रूपी प्रयत्न से उसे खीच कर, फिर तप रूपी बाण ले कर्म कवच को भेदते, इस प्रकार युद्ध करने वाला मुनि सदा के लिए संग्राम का अन्त कर देता है और संसार से छूट जाते है। जैन श्रमण यद्यपि आत्मकल्याण की भावना में ही प्रवृत्त रहते हैं अतः आन्तरिक व्यक्तित्व के धनी तो होते ही हैं; तथापि उनका बाह्य व्यक्तित्व किसी से भी कम न रहा है। विशेष रूप से साहित्यिक विद्या में ; उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में संस्कृत साहित्य, तमिल, कन्नड, अपभ्रंश, प्राकृत तथा इन भाषाओं में न्याय, व्याकरण, धर्म, दर्शन, कर्म, आचार, पुराण, ज्योतिष, यन्त्र-मन्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयों पर लोकोपकार की भावना से लिखा। अतः हम देखते हैं कि जैन श्रमण- परम्परा श्रावकों के लिए, आत्महित की दृष्टि से तो उपकारी रही ही है, तथापि जीवन के हर क्षेत्र में राष्ट्रीय, सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में उनका श्रावकों के लिए योगदान रहा है। अतः जीवन की प्रत्येक विद्या में सच्चे श्रमण हर किसी के आदर्श हो सकते हैं। 1. उत्तराध्ययन 9,20,22

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