Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 311
________________ 310 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा दिगम्बर श्रमण 32 अन्तरायों को टालकर आहार लेते हैं, और तत्पश्चात् वन की आर प्रस्थान कर जाते हैं। एक स्थान पर ज्यादा समय नहीं रहते. और शहर को अपना आवास स्थल नहीं बनाते हैं। अनियत विहारी होकर भव्य जीवों को धर्मोपदेश दिया करते हैं। पैदल ही विहार करते हैं एवं ईर्या- समिति का पालन करते हैं, सूर्य के द्वारा अच्छी तरह भूमि तप्त होने पर एवं भूमि के प्रासुक होने पर गमन करते हैं। गमन करते हुए इधर-उधर जिज्ञासा भाव से न देखकर मौनपूर्वक बिना किसी को बताये, धर्म प्रचार, तीर्थवन्दना अथवा ज्ञान लाभ के लिए विहार करते हैं। जैन धर्म में एकल विहार का निषेध किया है, अतः अकेले विहार नहीं करते हैं जो कि उचित है। एकल विहार में अनेक दोष सम्भव है। अतिपुरुषार्थी, उत्तम संहनन युक्त श्रमण भी, आचार्य की आज्ञा से एकल विहारी होते हैं। अपना सम्पूर्ण जीवन धर्माराधना पूर्वक व्यतीत कर अन्त समय शरीर को धीरता, एवं वीरता पूर्वक पण्डितमरण करते हैं। आचार्य का यदि मरण हो तो वे आचार्य पद त्याग करके समाधिमरण करते हैं, क्योंकि आचार्य पदवी भी उपाधि है और औपाधिक भाव से मोक्ष नहीं है, मोक्ष तो साधु अवस्था से कहा है। आचार्य अपना समाधिमरण अन्य संघ में जाकर करतें हैं. क्योंकि अपने संघ में समाधि मरण मोह की खान है। अपने संघ को त्याग कर अन्य संघ में सामान्य साधु बनकर स्वीकृत समाधिमरण. ही योग्य है। समाधिमरण कराने वाले श्रमणों को निर्यापकाचार्य कहते हैं, योग्य निर्यापक की खोज करना अति महत्व पूर्ण कहा गया है। निर्यापक योग्यायोग्य आहार को जानने में कुशल, क्षपक के मन को जानने वाले और उसका समाधान देने वाले, प्रायश्चित्त ग्रन्थ के रहस्य को जानने वाले, एवं स्व-पर उपकार में कुशल होते हैं। अधिकतम 48 निर्यापक और कम से कम दो, निर्यापक समाधि मरण करा सकते हैं। यद्यपि जैन श्रमण निरतिचारतः अपने स्वरूप का पालन करते ही हैं, और उनके निरतिचार पालन कराने में बहुत बड़ा योगदान आचार्य का होता है, तथापि कुछ श्रमण अपने मार्ग एवं उद्देश्य से भ्रष्ट हो जाते हैं, जिनको जैन धर्म में अवंदनीक ही कहा है। भ्रष्ट करने में बहुत बड़ा योगदान श्रावकों का है। परन्तु योग्य आचार्य एवं उनके अनुशासन के अभाव में भी श्रमण अपने पथ से भ्रष्ट हो जाते हैं। यदि आचार्य ही स्वयं भ्रष्ट एवं जड़वत् हो तो उसके संघ की भ्रष्टता की स्थिति का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। श्रमण धर्म मोक्षमार्ग है अतः इसमें थोड़ी सी भी शिथिलता सम्भव नहीं। जो की गयी प्रतिज्ञा को तोड़े वह बहुत बड़ा अपराधी है। क्योंकि चारित्र एक सफेद कागज है। एक बार कलंकित हो जाने पर इसका पूर्ववत् उज्ज्वल होना कठिन है। श्रमण-धर्म को अंगीकार बहुत सोच समझकर किया जाता है। श्वेताम्बर श्रमण का चिन्ह भी महावीर के उपदेशानुसार नहीं है, परन्तु जो नग्न रहकर भी मर्यादित जीवन व्यतीत नहीं करते हैं, वे भी भ्रष्ट ही कहे गये हैं। जैनधर्म में गुणों की महत्ता है। चिन्ह विशेष की कोई महत्ता नहीं

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