Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 310
________________ उपसंहार 309 भी उसकी परवशता में खेद व्यक्त कर वन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। इनकी भिक्षाचर्या को अक्षमक्षण, गोचरी, भ्रामरी आदि विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है। इनका आहार सूर्योदय के तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी शेष रहते एक बार खड़े-खड़े हाथ में लेकर ही होता है जो कि आहार के प्रति उत्कृष्ट, निस्पृह वृत्ति एवं स्वाभिमानता की द्योतक है। आहारार्थ गमन भी विभिन्न प्रतिज्ञाओं को लेकर होता है। अपने लिए बनाये गये आहार को त्याग कर अनुद्दिष्ट आहार को ग्रहण करते हैं। जो कि अपने आप में एक श्लाघनीय नियम है और सर्व सावद्य एवं सर्व आरम्भ से मुक्त आहार है। आहार का ग्रहण भी यदा-या किसी के घर पर नहीं अपितु उच्चकुल में, सीधी पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आया हुआ प्रासुक आहार दाता की नवधा भक्ति देखकर ग्रहण करते हैं। दिगम्बर श्रमण की आहार- चर्या में जितना आहार शुद्धि पर ध्यान दिया गया है, उतना श्वेताम्बर परम्परा में श्रमण की आहार शुद्धि पर ध्यान नहीं दिया गया है। वहाँ पर श्रमण के माँसाहार तक का उल्लेख है, इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविद्यालय से वीणा जैन ने जैन मुनियों के माँसाहार का उल्लेख कर सर्वप्रथम इस क्षेत्र में अपने साहस एवं निष्पक्षता का परिचय दिया था। जर्मन के विद्वान याकोबी ने इस तरह की चर्चा की थी जिसका जैन समाज ने काफी विरोध किया था। किन्तु इनका खोखला, बेबुनियाद विरोध कुछ न कर सका। क्योंकि माँसाहार के उल्लेख जब श्वे. जैन साहित्य में है, तो उनका संकेत करना कौनसा अपराध है। अनुसन्धानकर्ता के उल्लेख न करने पर वे प्रसंग समाप्त तो नहीं हो जाएंगे। परन्तु वहाँ शोध की वीणा जैन ने एक भ्रमपूर्ण गलती यह की कि उन माँसाहार का उल्लेख विस्तृत शोध की समीक्षा किये बिना सम्पूर्ण जैन धर्म के साथ जोड़ा, जो कि सही न था। दिगम्बर सम्प्रदाय माँसाहार का सर्वथा विरोध करता है। जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय एक विशिष्ट परिस्थिति जन्य- जन्म है। अतः उनके यहाँ इस प्रकार के काफी प्रसंग पाये जाते हैं। यतः इस प्रकार का भेद समझना अति आवश्यक है। भगवान महावीर अहिंसक थे और उन्हीं की परम्परा में दिगम्बर श्रमण संघ (नग्नवृत्ति सहित) आता है, श्वेताम्बर सम्प्रदाय महावीर की मूल परम्परा से भिन्न है। अतः श्वेताम्बर के साहित्य का एवं आगमों का इसी कारण बहिष्कार एवं अमान्य एक वर्ग ने किया। यद्यपि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के परवर्ती विद्वानों एवं श्रमणों ने इन माँस परक शब्दों का अर्थ वनस्पति परक करना शुरू कर दिया है, परन्तु उससे कुछ स्पष्ट न हो सका। हाँ, यह बात भी सत्य है कि वर्तमान में जहाँ तक मैंने जानकारी प्राप्त की, कोई भी श्वेताम्बरीय श्रमण मद्य, माँस, का प्रयोग नहीं करता, और प्रबल रूप से उसका विरोध ही करता है। तथापि इस सम्प्रदाय के इस तरह के साहित्यिक उल्लेख इनके जन्म समय की घटनाओं को मान्यता देने के लिए ही हैं, मैं ऐसा मानता हूँ।

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