Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 308
________________ उपसंहार वीतरागता नग्नता में ही सम्भव है, अतः नग्न भेष में ही मुक्ति शक्य है। णमोकार मंत्र में जो " णमो लोए सव्वसाहूणं" आता है उसका भी अर्थ वीतरागता लिए नग्न दिगम्बर स्वरुप से युक्त लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार किया गया है, न कि यद्वा तद्वा किसी भी नामधारी साधु को नमस्कार है । यह कैसी विडम्बना है कि साधुता के नाम पर किसी भेषधारी को उसके गुण-अवगुण की पहिचान किये बिना सत्कार - नमस्कार आदि किया जाता है। जबकि गुणों की प्राप्ति के लिए ही किसी को सम्मान दिया जाता है जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में "वन्दे तद् गुणलब्धये" आता है, जब किसी में उसके आवश्यक अपेक्षित गुण / विशेषताएँ होवे ही नहीं, तो उसके सम्मान का क्या औचित्य हो सकता है? यह तो छलावा मात्र है। 307 हम प्रयोजनवश ही किसी को अपना सम्मान देते हैं, फिर चाहे वह लौकिक प्रयोजन हो या पारलौकिक, परन्तु विश्व के समस्त प्राणी जगत का एक मुख्य प्रयोजन रहता है। जिसके लिए ही वह समस्त व्यवसाय करता है और वह प्रयोजन है दुःख के परिहार रूप सुख की प्राप्ति, और वह यथार्थ समझ से मिलती है। वस्तु की सही जानकारी व तद्नुसार परिणति होने पर सुख प्राप्त होता है । वस्तु के स्वभाव का ज्ञान श्रद्धान एवं आचरण ही धर्म है। इस वस्तु तत्त्व में मैं स्वयं भी एक आत्म-वस्तु हूँ, सुख प्राप्ति के लिए यह परिज्ञान आवश्यक है, क्योंकि दुःख स्वयं में है, और उसके अभावपूर्वक सुख भी स्वयं में ही करना है। इन सब कार्य की प्रमुखता श्रमणों में होती है अतः वे धर्मात्मा कहलाते हैं। ये श्रमण "तीन गुप्ति रूपी गुप्ति का आश्रय लेते हैं, अनशन आदि तप रूपी राज्य का पालन करने में उनकी बुद्धि लगी रहती है, 'पूर्ण व्रत रूपी कवच धारण करते हैं शील रूपी खेट में बसते हैं, ध्यान रूपी अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार रखते हैं, उसके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं की सेना को वश में करने के लिए तत्पर रहते हैं । इस प्रकार श्रमणों का माहात्म्य है। जैन धर्म में जीव- अजीव आसव-बंध, संवर- निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं, यदि इस तात्विक अवस्था के अन्तर्गत ही श्रमण का स्वरूप कहें, तो निरन्तर संसार के कारण रूप कर्म को आने से रोकते हैं और संचित कर्मों की निर्जरा करते हैं यही उनकी अहोरात्रि चर्या है, व्यवसाय है, इसके अलावा वे कुछ नहीं करते हैं, अतः सवंरनिर्जरा की मूर्ति मुनि हैं। यही उनका मुख्य धर्म है। तदनुसार पंचमहाव्रत, गुप्ति-समिति, पंचेन्द्रिय जय, षडावश्यक एवं शेष सात गुण के पालन रूप वृत्ति भी उनके जीवन में देखी जाती है, जिसे धर्म भाषा में 28 मूलगुण कहते हैं । यहाँ यह कहना कि इन अट्ठाइस मूलगुणों का आविष्कार किसने किया, यह प्रश्न-पद्धति न्यायोचित नहीं है। हाँ, यह प्रश्न कि किसने साहित्यिक रूप में प्रथम कहा, उपलब्ध साहित्य के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द या वट्टकेर को कह सकते हैं, परन्तु यह उनकी देन नहीं कही जा सकती है । सन्तों की अहिंसक वृत्ति इस प्रकार 28 भेदों से होती है। सज्जनों का ऐसा स्वभाव ही है, जैसे जल का त्रिकालवर्ती स्वभाव शीतल और अग्नि का गर्म वैसे ही श्रमणों का भी उक्त प्रकार से भेदाभेद रूप स्वभाव है। 1. भ. आ. पृ. 90

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