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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
निसंग हैं जो वायसम निर्लेप हैं आकाश से.
निज आत्म में ही विहरते जीवन न पर की आस से। जिनके निकट सिंहादि पशु भी भूल जाते क्रूरता, उन दिव्य गुरूओं की अहो ! कैसी अलौकिक शूरता।।
अज्ञात
समकित सहित आचार ही संसार में बस सार है,
जिनने किया आचरण उनको नमन शत-शत बार है। उनके गुणों के कथन से गुण ग्रहण करना चाहिए, और पापियों के हाल सुनकर पाप तजना चाहिए।।
ब्र. हरिभाई