Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 307
________________ 306 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा पुरातात्विक सामग्री के अतिरिक्त नन्द, मौर्य, एवं सिकन्दर महान् सम्राट जैन श्रमणों से बहुत प्रभावित थे। भारतीय साहित्यिकता भी जैन श्रमणाचार से प्रभावित हुयी है, संस्कृत, तमिल, कन्नड साहित्य तो जैन श्रमणों के यशोगान में ही लीन हैं। जैन श्रमणचर्या यद्यपि अव्याबाध रूप से वहती रही है, तथापि इस श्रमणाचार में भी विभिन्न विजाति शाखाएं प्रस्फुटित होती रही हैं, और यह एक लम्बी अवधि को तय करने वाले के लिए अनहोनी नहीं है। महावीर के पश्चात् एक विकट परिस्थिति में वस्त्र के विवाद ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय को जन्म दिया। जो अब तक विद्यमान और पल्लवित एवं पुष्पित है। सचमुच में समस्त विवाद तो वस्त्र किंवा परिग्रह में हैं, और यही विभिन्न सम्प्रदायों का जनक भी, कोई गेरूआवस्त्र में विश्वास तो कोई श्वेतवस्त्र में जबकि वस्त्रों के अन्दर सभी समान एवं एक से हैं, और जिससे सभी में समानता आती है। भेद-भाव का अन्त व ऊंच-नीच की प्रवृत्ति की समाधि हो वही सन्तों का धर्म है, और यह मात्र नग्न वेष की स्वीकृति में ही है। वस्त्र पश्चातवर्ती जबकि नग्नता सहज एवं अनादि कालीन है, अतः उस वृत्ति को स्वीकारने वाला प्रकृति प्रेमी ही सत्यान्वेषी है। इस तरह नग्न वेष रूप दिगम्बरत्व प्राचीन एवं श्रेष्ठ है। और यही समभाव का द्योतक होने से सन्तों का धर्म हो सकता है। जहाँ समभाव नहीं वह सन्त नहीं है। सन्तों में भी कथंचित् सामाजिकता होने के कारण, सत्य की सुरक्षा के अभिप्राय से विभिन्न गणों, गच्छों, और अन्वयों का सहज अभ्युदय हुआ जिससे यदि एक तरफ उत्थान हुआ, तो दूसरी तरफ पतन भी और सन्त तथा समाज एक जातीय संकीर्णता में बंध से गये, तथापि सच्चे निर्दोष श्रमण समय-समय पर होते रहे। जैनधर्म में व्यक्तिवाद को कोई स्थान नहीं है और न ही किसी भेष विशेष की कोई महत्ता। जैसे भारत, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और उसका राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अथवा अन्य कोई महत्वपूर्ण राजकीय व्यक्ति धर्म निरपेक्ष होगा, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके व्यक्तिगत जीवन में कोई धर्म विशेष का स्थान न रहे। चूंकि भारत धर्म निरपेक्ष है और वह यदि किन्हीं मानवीय गुणों के आधार पर अहिंसा, अपरिग्रह आदि तथ्यों को प्रोत्साहित करता है अथवा शराब, माँस, आदि आहार विकृतियों के निवारणार्थ विशेष कदम उठाता है जो कि किसी धर्म के विशेष लक्षण हैं, और उससे कोई विशेष धर्म/सम्प्रदाय,विशेष रूप से प्रकाश में आता है अथवा वैचारिक गुत्थियों के सुलझाने में समर्थ अनेकान्त स्यावाद का नामोल्लेख पूर्वक विशेष प्रचारित करता है, जिससे राष्ट्र एवं समाज का विशेष हित हो रहा हो, परन्तु ये सब किसी धर्म विशेष में ही पाये जाते हों, तो इससे वह राष्ट्र, धर्म सापेक्ष नहीं कह दिया जाएगा। इसी प्रकार से यद्यपि जैनधर्म में किसी भेष विशेष का कोई स्थान नहीं, तथापि आध्यात्मिकता का आधार वीतरागता को महत्ता मिली है, और वह

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