Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 309
________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा जैन श्रमण का अत्यन्त पवित्र जीवन और उनका ईश्वर के रूप में स्थान है और वे अष्टद्रव्य से पूज्य हैं। अतः इस जीवन शैली की प्राप्ति हेतु उत्कृष्ट पात्रता की आवश्यकता होती है। अतः सामान्यतः, अपराधी, लोक विरुद्ध, अतिकामी पुरुषों को प्रोत्साहित नहीं किया है । अत्यन्त संवेगी, संसार, शरीर, भोगों से उदासीन, ज्ञानवान व्यक्ति को जिनलिंग के धारण के योग्य कहा गया है। साथ ही जो लूला, लंगड़ा, अन्धा, काना, पारिवारिक जनों से अनुमति न लाया हुआ और शूद्रवर्ण को पात्रता के अयोग्य कहा गया है, तथा जो बाल्यावस्था युक्त है उसको भी दीक्षा के लिए अपात्र कहा है। जितनी आवश्यकता दीक्षा के लिए पात्र जीवन की है, उतनी ही आवश्यक सावधानी दीक्षादाता के जीवन पद्धति की परीक्षा की है। दीक्षा लेने वाले को, धीर-गम्भीर सुयोग्य आचार्य से ही दीक्षा लेना चाहिए । आचार्य भी नवागन्तुक के सुयोग्य जीवन को देखकर अति सावधानीपूर्वक दीक्षा देते हैं। 308 मोक्ष का मार्ग तो यद्यपि सर्व परिग्रह के उत्सर्ग (त्याग) रूप ही है, तथापि सीमित संयम के उपकरण रूप पिच्छि, कमण्डलु एवं शास्त्र को अपवाद मार्ग में स्वीकारा है । तथापि यह भी सूक्ष्म दोष ही है जिसका भी त्याग आवश्यक है। उत्सर्ग एवं अपवाद के समुचित समन्वय रूप मार्ग से साधक को चलना चाहिए। श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में अपवाद की आड़ में एक लम्बी परिग्रह की सूची एवं आहार व्यवस्था प्ररूपित की है वह सही नहीं है। जिस अपवाद मार्ग से शिथिलाचार प्रसूत हो वह जैन शासन में स्वीकृत नहीं है । अट्ठाइस मूलगुण युक्त श्रमण की सम्पूर्ण आचार संहिता को आचार्य वट्टकेर ने समाचार अधिकार में प्ररूपित किया है। रागद्वेष रहित आचार को समाचार कहते हैं, जो श्रमणाचार का वैशिष्ट्य है। यह औधिक और पद विभागादिक के भेद से दो प्रकार का होता है । भ्रमण का प्रातः काल षडावश्यकों से प्रारम्भ होता है। श्रमणों का निश्चय नय से आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य कार्य तो आत्मिक स्थिरता बनाये रखना ही है, तथापि व्यवहार नय से, सामयिक, वंदना, चतुर्विशांतिस्तव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग है । यह ही उनकी नित्य क्रिया है, परन्तु समय-समय पर विशिष्ट धार्मिक पर्व, निर्वाण दिवस आदि पर नैमित्तिक क्रियाओं में सोत्साह प्रवर्तित होते हैं । 1 जैन श्रमण की आहार चर्या भी कर्म निर्जरार्थ होती है। उनका भोजन शरीर की पुष्टि के लिए नहीं अपितु आत्म-साधना के लिए होता है, और वे आत्म- साधना के आधार पर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते हैं। वे इन्द्रियों से अधिक आत्म-स्वरूप पर उपयोग लगाते हैं। अतः इन्द्रिय -जयी स्वतः हो जाते हैं । इन्द्रियों को जीतने का सीधा मार्ग यह है कि उनको महत्व देना बन्द कर दिया जाए। वे समस्त शक्ति अपनी आत्मा पर लगाते हैं, अतः वे इन्द्रियों पर पूर्ण विजयी हो जाते हैं। जो दूसरों पर शक्ति का प्रयोग करके विजय प्राप्त करता है, वह तो अपने शत्रु पर अपूर्ण विजय ही प्राप्त करता है, पूर्ण नहीं। जैन भ्रमण पूर्ण विजयी होने के लिए अल्पाहार लेकर उससे कठोर तपस्या करते हैं। शुद्ध आहार लेकर

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