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जैन श्रमण के भेद-प्रभेद
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स्व-समय और परसमय में पारंगत हो, मेरु के समान निश्चल हो, पृथ्वी के समान सहनशील हो, जिन्होंने समुद्र के समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो, जो सात प्रकार के भय से रहित हो, उन्हें आचार्य कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद एवं अकलंकदेव ने संक्षिप्त में बतलाते हुए कहा कि "जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है।
आचार्य पद के गुण -
आचार्य शिवार्य ने आचार्य के गुणों को बतलाते हुए कहा कि आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयातपायदर्शनोद्योत और उत्पीलक होता है। तथा वह अपरिसहस्रावी, निर्वापक, निर्यापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान और निर्यापन के गुणों से परिपूर्ण होता है। बोधपाहुड की टीका में 36 गुण उदधृत किये हैं-आचारवान्, श्रुताधार, प्रायश्चित्त, आसानादित, आयापायकथी, दोषभाषक, अश्रावक, सन्तोषकारी, निर्यापक, ये आठ गुण तथा अनुदिष्ट भोजी, शय्यासन और आरोगभुक्, क्रियायुक्त, व्रतमान, ज्येष्ठसद्गण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी दो निषद्यक, 12 तप और छह आवश्यक ये 36 गुण आचार्यों हैं।10
आचार्य शिवार्य ने 36 गुणों की चर्चा अलग से करते हुए कहा कि "आचारवत्व आदि 5 गुण, दस प्रकार की स्थिति कल्प, बारह तप, छह आवश्यक, ये छत्तीस गुण होते हैं। 1. आशाधर ने अपनी टीका में छत्तीस गुण संस्कृत टीका में विजयोदया के अनुसार बतलाकर प्राकृत टीका के अनुसार अट्ठाइस मूलगुण और आचारवत्व आदि आठ इस तरह छत्तीस बतलाए हैं।
आचारवत्व आदि आठ गुण - आचारवत्व, आधारवत्व, व्यवहारपटुता, प्रकारकत्व, आयापाय दर्शिता, उत्पीलक, अपरिस्रवण और सुखावहन
1. आचारवत्व -
आचार के पाँच भेद हैं-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, और वीर्याचार ।
(क) ज्ञानाचार - जिससे आत्मा का यथार्थ स्वरुप जाना जाता है, तथा जिससे.आत्मा
कर्म बन्धनों से मुक्त होता है वही ज्ञानाचार है। (ख) दर्शनाचार - जीवादि पदार्थों का श्रदान करना, अथवा 25 मल-दोष रहित
सम्यक्त्व का धारण करना दर्शनाचार है। (ग) चारित्राचार - पाप-क्रिया से निवृत्ति चारित्र है। वह प्राणिवध, असत्य, चोरी,
अब्रह्म, और अपरिग्रह इनसे निवृत्ति रूप में होती है।