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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
केशलोंच करके दीक्षा ले लेते हैं। दीक्षा लेकर केवल ज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं, परन्तु सामान्य दिगम्बर साधुओं के लिए कोई नियम नहीं है। इस अपेक्षा मुनियों में अन्तर है।
गणधर मुनि -
गणधर मुनि अष्ट श्रृद्धियों सहित होते हैं।18 ये पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पाँच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व संभिन्नश्रोतृत्व बुद्धिओं से उपलक्षित प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञान से युक्त-----तप्तातप लब्धि के प्रभाव से मल-मूत्र रहित दीप्त तपलब्धि के बल से सर्वकाल उपवास युक्त होकर भी शरीर के तेज से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वोषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होने से हाथ की कनिष्ठ अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृत-आस्रवादि श्रृद्धियों के बल से हस्त-पुट में गिरे हुए सर्वआहारों को अमृत स्वरूप से परिणमाने में समर्थ, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथ में गिरे आहार की अक्षयता के उत्पादक, अघोर तप श्रृद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, वचन और मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देव समूह को जीतने वाले, तीनों लोकों में श्रेष्ठ, "हमारी-हमारी भाषा से हमें हमको ही कहते हैं" इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले, एवं इसी प्रकार अनेक गुणों से पूर्ण विशिष्ट मुनि गणधर कहलाते हैं।19
गणधर के अतिरिक्त अन्य मुनियों में चारण श्रृद्धि आदि की अपेक्षा से अनेक भेद किये जा सकते हैं, पर उनके पूज्यत्व में कोई हीनाधिकता नहीं है।
तत्वार्थ सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद ने, सर्वार्थसिद्धि में आचार्य-उपाध्याय के अलावा और भी भेदों का स्वरूप बतलाया है जो निम्न है।
(1) तपस्वी -
महान् उपवास करने वाले साधु को तपस्वी कहते हैं।
(2) शैक्ष्य -
शास्त्र के अध्ययन में तत्पर मुनि को शैक्ष्य कहते हैं।
(3) ग्लान -
रोग से पीड़ित मुनि को ग्लान कहते हैं।