Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 294
________________ जैन श्रमण के भेद-प्रभेद 293 V 4. तीर्थ - ये पुलाकादि पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्य सभी तीर्थंकरों के धर्मशासनों में होते हैं। 5. लिंग - इसके दो भेद हैं - (1) द्रव्यलिंग और (2) भाव लिंग। पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ भावलिंगी होते हैं। वे सम्यग्दर्शन सहित संयम पालने में सावधान है। भावलिंग का द्रव्यलिंग के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। यथाजातरूप लिंग में किसी के भेद नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति रूप लिंग में अन्तर होता है; जैसे कोई आहार करता है, कोई अनशनादि तप करता है, कोई उपदेश करता है, कोई अध्ययन करता है, कोई तीर्थ में विहार करता है, कोई अनेक आसन रूप ध्यान करता है, कोई दूषण लगा हो तो उसका प्रायश्चित्त लेता है, कोई दूषण नहीं लगाता, कोई आचार्य है, कोई उपाध्याय है, कोई प्रवर्तक है, कोई निर्यापक है, कोई वैयावृत्य करता है, कोई ध्यान में श्रेणी का प्रारम्भ करता है, इत्यादि विकल्पों रूप द्रव्यलिंग में मुनि गणों में भेद होता है, 6. लेश्या - पुलाक मुनि के तीन शुभ लेश्यायें होती हैं। वकुश तथा प्रतिसेवना कुशील मुनि के छहों लेश्या भी होती हैं। कषाय से अनुरंजित परिणाम को लेश्या कहते हैं। कषाय कुशील मुनि के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेश्यायें होती हैं। सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती के शुक्ल लेश्या होती है। तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक के उपचार से शुक्ल लेश्या है, अयोगकेवली के लेश्या नहीं होती है। । उपपाद - पुलाक मुनि का उत्कृष्ट अठारह सागर की आयु के साथ बारहवें सहस्रार स्वर्ग में जन्म होता है। वकुश और प्रतिसेवना कुशील का उत्कृष्ट जन्म बाईस सागर की आयु के साथ पन्द्रहवें आरण और सोलहवें अच्युत स्वर्ग में होता है। कषाय कुशील और निम्रन्थ का उत्कृष्ट जन्म तैतीस सागर की आयु के साथ सर्वार्थ सिद्धि में होता है। इन सबका सौधर्म स्वर्ग में जघन्य दो सागर की आयु के साथ जन्म होता है। स्नातक केवली भगवान हैं, उनका उपपाद निर्वाण/मोक्षरूप से होता है। स्थान - कषाय निमित्त असंख्यात संयमस्थान होते हैं। पुलाक और कषायकुशील के सबसे जघन्य लब्धि स्थान होते हैं। वे दोनों असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते हैं। इसके बाद पुलाक की व्युच्छित्ति हो जाती है। आगे कषायकुशील असंख्यात स्थानों तक अकेला जाता है। इससे आगे कपाय-कुशील, प्रतिसेवना-कुशील और बकुश असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते हैं। यहाँ बकुश की व्युच्छित्ति हो जाती है। इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर प्रतिसेवना कुशील की व्युच्छित्ति हो जाती है। पुनः इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर कपाय-कुशील की व्युच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे अकपाय स्थान है जिन्हें निर्गन्यता प्राप्त होती है, उसकी भी, असंख्यात स्थान जाकर व्युच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे एक स्थान जाकर स्नातक निर्वाण को प्राप्त होता है। इनकी संयमलब्धि अनन्त गुणी होती है। इस प्रकार संयमलब्धि के स्थान हैं। उनमें अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा से संयम की प्राप्ति अनन्तगणी होती है।35

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