Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 302
________________ श्रमणों का अवदान 301 काव्य/स्तोत्र - इस क्षेत्र में जैन श्रमणों ने पर्याप्त लिखा है, जिनमें भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमन्दिर, सहस्रनामस्तोत्र आदि साहित्य है, जो रस, गुण समन्वित है। आदिपुराण,हरिवंशपुराण, यशस्तिलक आदि उच्च काव्य की कोटि में आते हैं। कोष साहित्य में पूज्यपाद ने शब्दावतार, तेरहवीं शताब्दी के धरसेन ने विश्वालोचन कोष, दिवाकर मुनि कृत "दिवाकर निघंटु" पिंगल मुनि कृत "पिंगलनिघंटु आदि, वैद्यक साहित्य में उग्रादित्याचार्य कृत "कल्याणकारकं" नामक वृह्दकाय आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ, ज्योतिष में आचार्य गर्ग कृत निमित्त शास्त्र, आचार्य ऋषिपुत्र कृत पाशकेवली, श्रीधराचार्य कृत ज्योतिर्ज्ञानविधिकरण विषयक ज्योतिष ग्रन्थ, आचार्य भट्टवोसरि कृत "आयज्ञानतिलक" लाभ का लाक्षणिक ग्रन्थ इसी प्रकार भद्रबाहु संहिता आदि निमित्तशास्त्र, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि श्रमणों द्वारा प्रणीत है, जिनके अवदानों को गौण नहीं किया जा सकता है। ज्योतिष ग्रन्थों के प्रणयन का उद्देश्य था कि मानव समूह लाक्षणिक आदि ग्रन्थों से पूर्वकृत शुभाशुभ भावों के फल का विचार कर, एवं शुद्धोपयोग रूप एक धर्म मात्र को ही सच्चा शरण जानकर उसके प्रति प्रेरित हो सके, अथवा शारीरिक लक्षणों से अपनी आयु का विचार कर तदनुसार समाधिमरण हेतु उद्यत हो सके। इसी प्रकार ग्रह नक्षत्रों एवं अष्टांगों के वर्णन करने का उद्देश्य रहा है। ज्योतिष आदि विद्याएँ स्वर्ग, नरक, पुण्यपाप, एवं आत्मा के अनादि अनन्तता की भी सिद्धि करती हैं। इसके अतिरिक्त जैन श्रमणों द्वारा गणित, बीजगणित लोक-विभाग, राज्यनीति, नाटक, छन्दशास्त्र, तर्कशास्त्र, कथा साहित्य, तथा पार्श्वदेव कृत "संगीत समयसार" के रूप में संगीत शास्त्र, आदि एवं कुछ श्रमणों के द्वारा मन्त्र- तन्त्र के साहित्य भी लिखे गये हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जैन श्रमण इन सब का ज्ञान तो कर सकता है, क्योंकि ये सब द्वादशांग के अंग हैं, और ज्ञान का स्वभाव "जानना" है। अतः सब विद्याओं का ज्ञाता तो हो सकता है। परन्तु इन सब में उसकी आसक्ति नहीं होती, और ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र एवं वैद्यक का प्रयोग अथवा उसकी प्रेरणा जैन श्रमण नहीं करते हैं। तथा उसको अपनी आजीविका किं वा यश का साधन नहीं बनाते हैं। जैन श्रमण की अध्यात्म विद्या में आसक्ति होती है, एवं उसी के उपदेश एवं प्रचार की भावना भाते हैं। जैन श्रमणों ने भारत की प्रत्येक संस्कृति एवं क्षेत्र को अपना योगदान दिया ही है, परन्तु "दक्षिण भारत की संस्कृति में उनका महत्वपूर्ण स्थान रहा है। तमिल और कन्नड भाषा की प्रारम्भिक साहित्यिक उन्नति का अधिकांश श्रेय जैन संतों के परिश्रम को है62 एवं कन्नड के गद्य का सर्वप्रथम रुप भी "वड्डराधने" जो कि जैन श्रमण की देन है - में प्राप्त होता है।63

Loading...

Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330