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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
जीव का मूल प्रयोजन अपनी आत्मा के जानने में ही है । और अपनी आत्मा के ज्ञान कराने में तत्पर साहित्य को अध्यात्म शास्त्र कहते हैं । अध्यात्म विद्या के प्रतिपादन में कुन्दकुन्द कृत समयसार आता है। सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र ही आत्म स्वातंत्र्य की प्राप्ति में कारण हैं, जो कि समयसार का प्रतिपाद्य है। नैतिक व्यक्तित्व के विकास के लिए अध्यात्मविद्या आवश्यक है । भोगवादी दृष्टिकोण, मानवजीवन में निराशा, अतृप्ति, अपराध एवं कुण्ठाओं को जन्म देता है । और अध्यात्म इन सब से परे रखता है । अध्यात्म विषयक साहित्यकारों में कुन्दकुन्द, पद्मप्रभ, जोइन्दु आदि मुख्य हैं, परन्तु सभी श्रमण . साहित्यकारों ने अध्यात्म को अपने-अपने ग्रन्थों में विवेचित किया है, क्योंकि सभी का समान लक्ष्य आत्महित अर्थात् सच्चे सुख की प्राप्ति ही था ।
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जैन श्रमणों ने भाषाओं को सुव्यवस्थित स्वरूप देने के लिए विभिन्न भाषा के व्याकरण ग्रन्थों की भी रचना की है। आचार्य देवनन्दि ने अपने शब्दानुशासन में श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्र इन छह वैयाकरणों के नाम दिये हैं । यापनीय संघ के आचार्य पाल्यकीर्ति ने शाकटायन व्याकरण की रचना की, जिस पर सात टीकाएँ - अमोघवृत्ति, शाकटायनन्यास, चिन्तामणि, मणिप्रकाशि प्रक्रिया संग्रह, शाकटायनसिद्धि और रूपसिद्धि प्राप्त हैं। ये सभी महत्वपूर्ण टीकाएँ हैं। दयापाल मुनि ने लघु- सिद्धान्तकौमुदी की शैली पर रूपसिद्धि की रचना की है । कातन्त्ररूपमाला के रचयिता भावसेन त्रैविद्य है । शुभचन्द्र ने चिन्तामणि नामक प्राकृत व्याकरण लिखा है। श्रुतसागरसूरि का भी एक प्राकृत व्याकरण उपलब्ध है। 61 पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण के नाम से संस्कृत व्याकरण, अभयनन्दि ने महावृत्ति के रूप में जैन व्याकरण की टीका, प्रभाचन्द्र ने शाकटायन न्यास, भावसेन त्रैविद्य ने शाकटायन व्याकरण टीका, तमिल भाषा के प्रसिद्ध वैयाकरण भवनंदि ने " नन्नूल" व्याकरण का ग्रन्थ देकर अभूतपूर्व सेवा की। जो कि तमिल भाषा का लोकप्रिय ग्रन्थ है तथा जो वहाँ के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पाठ्यपुस्तक के रूप में नियत है। इसी प्रकार नयसेन ने कन्नड व्याकरण लिखकर अपना योगदान दिया। इस प्रकार व्याकरण क्षेत्र में भी जैन श्रमण सक्रिय रहे। यह एक पृथक रूप से विस्तृत शोध की अपेक्षा रखता है ।
पुराणों के क्षेत्र में भी जैन श्रमणों का योगदान रहा है। जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में पुराण का अभिप्राय "त्रेसठ शलाका अथवा सम्यग्दृष्टि महान पुरुषों के जीवन चरित का वर्णन करके उनके शुभाशुभ भाव तथा उनका फल प्रदर्शित कर सन्मार्ग में लगाने अर्थात् वीतरागता की ओर ले जाने भावों के प्ररूपक साहित्य से है, जिसे प्रथमानुयोग कहते हैं । इसमें पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, महापुराण, शान्तिनाथ पुराण, चंदम्पह चरिउ, पार्श्वनाथ चरित्र, कुमुदेंदु मुनि कृत " रामकथा", भद्रबाहु चरित्र, एवं हरिपेण कृत वृहद्कथाकोष मुख्य है।