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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
कहा कि "पहले मिथ्यात्वादि दोषों को छोड़कर भाव से अन्तरंग नग्न होकर एक शुद्धात्मा का श्रद्धान-ज्ञान व आचरण करे, पश्चात् द्रव्य से बाह्य लिंग जिन आज्ञा से प्रकट करे यह मार्ग है। क्योंकि जो मात्र द्रव्यरूप से विषयों से निवृत्त हैं उनके पापों की निवृत्ति नहीं, किन्तु भाव रूप से निवृत्त हैं उन्हीं के कर्मों का संवर है। द्रव्य और भावरूप निवृत्ति का भले प्रकार स्वरुप जानकर मन-वचन-काय से विषयों से निवृत्त होकर समस्त पापों के नाशार्थ भावस्प से विपयों से निवृत्त होना चाहिए। तथा जो विषयों से भी निवृत्त नहीं हैं, स्वच्छन्द एवं भ्रष्टाचारी हैं उनके द्रव्यलिंग भी नहीं है, वे नग्न मात्र हैं, और मात्र नग्नत्व पूज्य एवं आदर्श नहीं माना गया है।
श्रमणों का अवदान___ जैन श्रमण यद्यपि अन्तरोन्मुखी वृत्ति लिये होते हैं, बाह्य प्रपंचों से परे होते हैं, तथापि बाह्य वृत्ति की सर्वथा तिलांजलि नहीं हो पाती है। अतः वे अपने जीवन में सीमित बाह्य वृत्ति धारण करते हैं। "ज्ञानध्यान तपोरक्तः" होने के कारण बाह्य विकथाओं से दूर हुआ करते हैं। अतः ज्ञान और उसके साधनों का प्रचार तथा उनके बाह्य निष्पृह एवं शान्त व्यक्तित्व से नैतिकता के मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा होती रहती है, जिससे देश एवं समाज का सहज उद्धार, तथा उनके ध्यान एवं तपोमय व्यक्तित्व से सम्पूर्ण मानव के जीवन में एक कर्मठता एवं आत्मानुशासन की भावना जाग्रत होती है। क्योंकि पर-अनुशासन नहीं अपितु आत्म-अनुशासन जीवन एवं राष्ट्र को सम्मुनत बनाता है। अतः मानव जीवन के आदर्श के रूप में जैन श्रमणों का एक महत्वपूर्ण अवदान सदैव उपस्थित रहता है। एक शहरीय सामाजिक प्राणी न होते हुए भी यह वनवासी श्रमण किस तरह जगवासियों को अपने कार्यों से दिशा निर्देशन देता है, यह अच्छी तरह से जैन श्रमणों से ही सीखा जा सकता है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जैन श्रमणों ने अपना अवदान दिया, चाहे वह दार्शनिक, साहित्यिक, अथवा कोई और अन्य विद्या ही क्यों न हो, आत्म कल्याण के सजग प्रहरी लोक कल्याण में भी किसी से रंचमात्र भी पीछे न रहे, ऐसा जैन श्रमणों का अवदान के इस प्रस्तुत प्रकरण से समझा जा सकता है।
धार्मिक/दार्शनिक अवदान
चौबीसवें तीर्थंकर भगवान की परम्परा गौतम गणधर से प्रारम्भ होती है। श्वेताम्बर परम्परा अविच्छिन्न रूप से ही अंग साहित्य और पूर्व साहित्य का सृजन, संवर्द्धन, एवं पोषण मानती चली आ रही है। परन्तु दिगम्बर परम्परा अंग एवं पूर्व साहित्य को लुप्त मानकर महावीर की अहिंसा एवं स्याद्वादमयी वाणी को चारों अनुयोगों में रक्षित मानती है। अतः विभिन्न प्रकार के जैन साहित्य को इन चारों अनुयोगों में ही समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है।