Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 297
________________ 296 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा भावलिंग रहित मात्र द्रव्यलिंग व्यर्थ एवं निष्फल ही है। मोक्षपाहुड़ में कहा है कि जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ तप से तो संयुक्त है पर सम्यक्त्व से रहित है और अन्य आवश्यकादि क्रियाओं में शुद्ध भाव नहीं है ऐसे लिंग के ग्रहण में कहाँ सुख है।52 मोक्ष का मार्ग भाव से ही है,----मात्र द्रव्य से क्या साध्य है। जो नग्न है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र को नहीं पाता है, वह नग्न जिन भावना से रहित है---अतः भाव रहित केवल बाह्यलिंग अकार्यकारी है। ऐसे साधु को आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वरुपाचरण चारित्र से भ्रष्ट एवं मोक्षमार्ग का विनाशक कहा है। भावपाहुड़ में अति तिरस्कार करते हुए कहते हैं कि-"बाहु नामक मुनि बाह्य जिनलिंग युक्त था। तो भी अभ्यन्तर दोष से दण्डक नामक नगर को भस्म करके सप्तम पृथिवी नामक बिल में उत्पन्न हुआ। हे मुनि! तेरे नग्नपने से क्या साध्य है? जिसमें पैशून्य, हास्य, मत्सर, माया आदि परिणाम पाये जाते हैं। अतः ऐसा ये नग्नत्व पाप से मलिन और अपकीर्ति का स्थान है। जो धर्म से रहित है, दोषों का स्थान है, और इक्षु पुष्प के सदृश जिसमें कुछ भी गुण नहीं है, ऐसा मुनिपना तो नग्नरूप से नटश्रमण अर्थात् नाचने वाला भाँड सरीखा स्वांग है। अतः हे मुनि! तू बाह्यव्रत का वेष लोक का रंजन करने वाला मत धारण कर। इस प्रकार अनेक स्थलों पर भाव रहित द्रव्यलिंग का तिरस्कार किया गया है। यद्यपि इस प्रकार का द्रव्यलिंग तिरस्कृत किया गया है तथापि भावलिंग अध्यात्म का विषय है, इन्द्रियगम्य भी नहीं है, तथा वन्द्य भाव भी द्रव्यलिंग के माध्यम से ही आता है, अतः इस अपेक्षा से द्रव्यलिंग को निरतिचार धारण करने की भी आवश्यकता है। यह कोई आवश्यक नहीं कि दीक्षा के पश्चात् शुद्धात्मानुभूति हो, तथा सभी आत्मानुभवी हो, परन्तु 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन आवश्यक है। शुभोपयोग रूप भाव द्रव्यलिंग है, शुद्धोपयोग भाव, भावलिंग है। __इसी दृष्टि से द्रव्यलिंगी के तीन भेद किये जाते हैं-(1) पाँचवे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी (2) चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी तथा (3) प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी। इनको द्रव्यलिंगी इसलिए कहा जाएगा, क्योंकि यह लिंग जिस गुणस्थान में होता है उसके योग्य शुद्ध परिणति नहीं है। इसी अपेक्षा से इसको द्रव्यलिंगी कहा है। परन्तु बाह्य प्रवृत्ति में तीनों प्रकार के द्रव्यलिंग तथा छठवें गुणस्थानवर्ती के भावलिंगी साधु में समानता देखी जा रही है। यदि बाह्य में आगम कथित योग्याचरण नहीं, तो उसे द्रव्यलिंगी भी नहीं कहा जाएगा। जैसे बिजली का 100 वाट के बल्ब तभी तक उपयोगी व प्रशंसनीय कहा जाएगा कि जब तक वह 100 वाट के योग्य रोशनी दे। यदि वोल्टेज कम आते हैं, जिससे उसकी रोशनी कम होती है, तो वह उपयोगी तो है परन्तु बहुत प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि समुचित रोशनी नहीं है। यदि बिजली का कनेक्शन न होने पर रोशनी नहीं देता है, तो भी वह उपयोगी तो है, परन्तु निंदनीय नहीं है। क्योंकि वह फ्यूज नहीं है अतः उसे अनुपयोगी मानकर फैंका नहीं जा सकता है। इसी तरह अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान के अभाव में शुद्ध परिणति रूप वोल्टेज न होने पर भी, अट्ठाइस मूलगुणात्मक शुभोपयोग रूप तार टूटा नहीं है, अतः वह साधू अपूज्य नहीं कहा जा सकता है। निरतिचारी द्रव्यलिंगी के

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