Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 298
________________ द्रव्यलिंग/भावलिंग 297 परभव पर विचारते हुए श्री कार्तिकेय स्वामी कहते हैं कि "द्रव्यलिंगी, किन्तु भाव से असंयत सम्यग्दृष्टि, अथवा देशव्रती अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्य ग्रैवेयक तक जन्म लेते हैं। द्रव्यलिंग का कट्टरता से जो जगह- जगह निषेध मिलता है उसका प्रयोजन बतलाते हुए जयसेनाचार्य ने कहा कि "द्रव्यलिंग निषिद्ध ही है ऐसा तू मत जान ! किन्तु भावलिंग से रहित यतियों को यहाँ सम्बोधन किया गया है। वह ऐसे कि - हे तपोधन ! द्रव्यलिंग मात्र से सन्तोष मत करो किन्तु द्रव्यलिंग के आधार से निर्विकल्प स्वानुभूति रूप दशा को प्राप्त करो। भावलिंग रहित द्रव्यलिंग निषिद्ध है न कि भावलिंग सहित, क्योंकि द्रव्यलिंग का आधारभूत जो यह देह है उसका ममत्व निषिद्ध है।57 वस्तुतः यहाँ वेषमात्र को मोक्ष का कारण मानने वालों का खण्डन किया है। एक तरफ तो वेष को मुक्ति की मान्यता का खण्डन किया तो दूसरी तरफ एक वेष विशेष की नियामकता भी मोक्षमार्ग में प्रस्तुत की है। वेष का मोक्षमार्ग में खण्डन का अर्थ यह नहीं कि वस्त्र पहिने ही मुक्ति हो जाएगी, क्योंकि वेष मुक्ति का कारण नहीं है, परन्तु वस्त्रादि शारीरिक आवरण के सूचक हैं, जो कर्म से आवृत होने की सिद्धि करते हैं। तथा उनके मलिन हो जाने पर उसके धोने के लिए जल एवं साबुन आदि का आरम्भ करना पड़ता है। जो बाह्यारम्भ की मानसिकता की सिद्धि है, और इस अवस्था में अन्तर्बाह्य संयम का घात अवश्यम्भावी है। वस्त्र के नष्ट हो जाने पर महान् पुरुषों का भी मन आकुलित हो उठता है, जो ममत्व का परिचायक है, दूसरों से मांगने के लिए प्रार्थना करनी पड़ती है। मुनिजन सदा पवित्र एवं रागभाव को दूर करने के लिए दिग्वस्त्र रूप अविनाशी अम्बर को ग्रहण करते हैं। अतः कृत्रिम वस्त्र को छोड़कर दिशाओं रूपी वस्त्र को पहिनने के कारण वह दिगम्बर रूप द्रव्यलिंग अनेकान्तात्मक वेष होने के कारण ग्राह्य है। अतः वेष के निषेध में तज्जन्य विकल्पों का निषेध है। इस अपेक्षा से मुक्तिमार्ग में निर्विकल्प रूप दिगम्बर लिंग का निर्धारण किया है। बाह्य रागद्वेष परिग्रह, आदि होने पर भला वह साधु कैसे हो सकता है ? और साधुता बिना मुक्ति कैसे ? अतः बाह्य परिग्रह जन्य वेष का निषेध किया है। यदि कोई श्रमण तपस्या करता हो, और उस समय उसके ऊपर यदि वस्त्र डाल दिया जाए या आभूषणादि पहना दिया जाए तो भी वह निर्गन्थ है, क्योंकि वहाँ बुद्धिपूर्वक ममत्व का अभाव है,58 तथा उस श्रमण के वह दशा उपसर्ग रूप है। अतः फलित है कि वस्त्र की सत्ता या असत्ता या बाह्य संयोग बन्ध के कारण नहीं, अपितु उनके प्रति ममत्व या निमर्मत्व परिणाम बन्ध-मोक्ष के कारण हैं। भावलिंग एवं द्रव्यलिंग ये दोनों परमगुरू अर्थात् तीर्थंकर भगवान द्वारा प्रदत्त हैं तो किसी एक का निषेध या अपूज्यपना किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता है क्योंकि "दीक्षा के समय दोनों लिंगों को आदरपूर्वक ग्रहण किया जाता है। अतः दोनों ही आदरणीय हैं। भावपाहुड़ टीका में आचार्य श्रुतसागर कहते हैं कि, भावलिंग से द्रव्यलिंग और द्रव्यलिंग से भावलिंग होता है अतः दोनों ही प्रमाण हैं, एकान्तमत से तो सर्वनष्ट हो जाता है ऐसा समझना चाहिए।60 तथापि भाव सहित द्रव्यलिंग की सफलता बताते हुए

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