Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 290
________________ जैन श्रमण के भेद-प्रभेद 289 जिनकल्पी और स्थविरकल्पीजिनकल्पी - जिनके उत्तम संहनन है, जितेन्द्रिय होकर सम्यक्त्व रत्न से विभूषित हैं। उत्कृष्ट संयमी हैं, पाँव में लगे हुए कांटे और नेत्रों में गिरी हुयी धूल को न स्वयं निकालते हैं, न दूसरों को निकालने के लिए कहते हैं। निरन्तर मौन रहते हैं,उपसर्ग परीषह रूपी शत्रु के वेग को जो सहते हैं, और जो जितेन्द्रिय भगवान् के समान विहार करते हैं, ऐसे मुनियों को जिनकल्पी कहते हैं।29 गोम्मटसार कर्मकाण्ड की जीवतत्वप्रदीपिका में कहा कि उत्तम संहनन के धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणते मुनि उनके एक सामायिक रूप चारित्र होता है। ये वर्षाकाल में मार्ग को जीवों से पूर्ण समझकर षट्मास पर्यन्त आहार रहित होकर कार्यात्सर्ग धारण करते हैं, धर्म एवं शुक्ल-ध्यान में निरत रहते हैं। जिनकल्पी अकेले रहते हैं, शिष्य नहीं करते। किसी को उपदेश-आदेश नहीं देते। तीर्थंकर देव जिनकल्पी होते हैं। स्थविर कल्पी - जो जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ होते हैं, वे स्थविरकल्प को स्वीकार करते हैं "पंचमकाल में स्थविर-कल्पी हीन संहनन के धारी साधु को तेरह प्रकार का चारित्र कहा है।27 ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय/संघ सहित विहार करते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुए भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं, और शिष्यों का संग्रह तथा उनका पालन भी करते हैं। अट्ठाइस मूलगुणों को निरतिचार पालन करते हैं, शत्रु-मित्र में समभाव हैं वे स्थविरकल्पी हैं। वर्तमान काल में स्थविरकल्पी ही होते हैं। पुलाक आदि मुनि प्रत्येक मानव में उसकी भूमिकानुसार गुणों की हीनाधिकता रहती है, क्योंकि विविध प्रकार के संसार में जीव हैं और उनकी विभिन्न योग्यताएँ हैं। तथापि एक निश्चित मर्यादा से बाहर दोष आने लगते हैं तो उसे भ्रष्टाचार कहते हैं, परन्तु यदि कदाचित् कथंचित् दोष आ जावे, तो उसके विशाल आदर्शमयी व्यक्तित्व के आगे वे नगण्य दोष गौण कर दिये जाते हैं, यही स्थिति "श्रमणों" की है। पुलाक, वकुश, कुशील, निर्गन्थ, एवं स्नातक, श्रमणों के ये भेद उत्तरोत्तर गुणवृद्धि लिये हुये हैं। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि "ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ होते हैं। इनमें चारित्र रूप परिणामों की न्यूनाधिकता के कारण भेद होने पर भी नैगम और संग्रह आदि नयों की अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।28 आचार्य पूज्यपाद की यह पंक्ति विचारणीय है कि, पुलाकादि में परिणामों की न्यूनाधिकता है, न कि हीनाचार आदि, इनमें भेद गुणों की अपेक्षा से हैं। अकंलक देव ने पुलाकादि की निर्गन्थता होने की शंका के समाधान पर्वक कहा कि"

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