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जैन श्रमण के भेद-प्रभेद
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पंचाध्यायीकार ने उपाध्याय के स्वरूप को अति विस्तार से बतलाते हुए कहा कि - शका-समाधान करने वाला, सुवक्ता वाग्ब्रम, सर्वज्ञ, अर्थात् सिद्धान्त-शास्त्र और यावत् आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सूत्रों को शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करने वाला होने से कवि, अर्थ में मधुरता का द्योतक, तथा वक्तृत्व के मार्ग का अग्रणी होता है। उपाध्यायपने में शास्त्र का विशेष अभ्यास ही कारण होता है, क्योंकि जो स्वयं अध्ययन करता है, और शिष्यों को भी अध्ययन कराता हैं, वही गुरू उपाध्याय है। उपाध्याय में व्रतादिक के पालन करने की शेष विधि सर्व मुनियों के समान ही है।
उपाध्याय के 25 विशेष गुण बतलाये हैं, जो कि ग्यारह अंग और 14 पूर्व का ज्ञान होना कहा है। आज इन अंगपूर्वो का ज्ञान न रहते हुए भी उनके कुछ अंश षट्खण्डागम, कपाय-पाहुड, तथा परम्परा से आगत समयसार, प्रवचनसार, मूलाचार आदि तथा चारों अनुयोग का ज्ञान उपाध्याय के लिए आवश्यक है।
3. प्रवर्तक -
जो संघ का प्रवर्तन करते हैं, अर्थात चर्या आदि के द्वारा प्रवर्तन करने वाले प्रवर्तक होते हैं। परन्तु वे ज्ञान से अल्प होते हैं।16
4. स्थविर - ___ मर्यादा का उपदेश देने वाले अर्थात् व्यवस्था बनाने वाले स्थविर, स्थविर कहलाते हैं।
5. गणधर -
गण के पालन करने वाले को गणधर कहते हैं।
संघ के आचार्य के कार्यभार को हल्का करने के लिए ही सम्भवतः प्रवर्तक, स्थविर, एवं गणधर जैसे पदों की संरचना हुयी होगी; क्योंकि प्रवर्तक आदि के कार्य आचार्य श्री के भी हैं। तथा प्रवर्तक की भी आचार्य संज्ञा है। एक संघ में दो आचार्य भी नहीं रहते हैं। ऐसी स्थिति में इन तीनों का कार्य आचार्य के कार्यों में हाथ बंटाना ही है, और ये पद संघ के ज्येष्ठतम एवं श्रेष्ठतम श्रमणों को ही दिया जाता है। मूलाचार की आचार-वृत्ति में तो इस सम्बन्ध में कहा कि जिस संघ में ये पाँच आधार रहते हैं, उसी संघ में निवास करना
चाहिए।17
तीर्थकर मुनि -
तीर्थंकर मुनि में सामान्य मुनि की अपेक्षा पुण्य प्रकृति की दृष्टि से एवं विशिष्ट पौरुष की अपेक्षा से भेद होता है। तीर्थंकर श्रमण उसी भव से मोक्ष जाते हैं। ये किसी से दीक्षा न लेकर स्वयं "ॐ नमः सिद्धेभ्यः" पद के उच्चारण पूर्वक सिद्धों को नमस्कार करके