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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
है। तथा वहाँ प्रत्यक्ष ज्ञाता सर्वज्ञदेव ने यह अच्छी तरह कहा है कि, श्रेणी पर अधिस्द आचार्य आदि को क्षण भर में वह साधु पद स्वयं प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह आचार्य और उपाध्याय श्रेणी चढ़ने के काल में सम्पूर्ण चिन्ताओं के निरोध रूप ध्यान को अवश्य ही धारण करते हैं। अतः सिद्ध होता है कि श्रेणीकाल में उनको अनायास ही वह साधु पद प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वहाँ पर निश्चय से बाह्य उपयोग के लिए बिलकुल अवकाश नहीं मिलता। किन्तु ऐसा नहीं है कि आचार्य, श्रेणी के आरोहण काल में पहिले छेदापस्थापनारूप चारित्र करके पीछे साधु पद को ग्रहण करते हों।
यद्यपि, आचार्य-उपाध्याय एवं साधु में स्वरूप की अपेक्षा से कोई विशेष भेद नहीं है। तथापि कार्य भेद की अपेक्षा से उनमें भेद करते हुए कहा है कि, आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार गुरु की तीन अवस्थाएँ होती हैं, क्योंकि ये तीनों मनि-कंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पद में आरुढ़ माने जाते हैं। सामान्यतः ये तीन भेद हैं, परन्तु और विशेष आन्तरिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से प्रवर्तक, स्थविर और गणधर सहित श्रमणों के पाँच भेद हो जाते हैं। इन प्रमुख भेदों का स्वरूप यहाँ क्रमशः प्रस्तुत किया जा रहा है।
1. आचार्य
णमोकार महामंत्र के तीसरे नम्बर पर आचार्य परमेष्ठी को स्मरण करके, उनकी श्रेष्ठता व महनीयता प्रदर्शित की गयी है, जो कि आचार्य पद के अप्रतिम गरिमा व गौरव की प्रतीक है। श्रमण संघ की संस्कृति में नायक के रूप में "आचार्य" पद का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।
जो श्रमण पंच प्रकार के आचार को निरतिचार रूप से स्वयं पालता है, और इन आचारों में दूसरों को भी प्रवृत्त कराता है, तथा आचार का शिष्यों को भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते हैं। धवला में आचार्य की विस्तृत विवेचना करते हुए कहा कि "प्रवचनरुपी समुद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास से और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, जो श्रेष्ठ हैं, देश-कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप है-ऐसे आचार्य परमेष्ठी हैं। जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित्त देने में कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो आचरण, निषेध, और व्रतों की रक्षा करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्यत हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्या स्थानों में पारंगत हो, ग्यारह अंगों के धारी हो, अथवा आचारांग मात्र के धारी हो, अथवा तत्कालीन