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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
श्रमण स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए अपने शोध के इस प्रकरण को मजबूरन् प्रस्तुत करना पड़ा है। जैसे स्वर्ण का स्वरूप बतलाने के पश्चात् यह भी अतिआवश्यक है कि उस जैसे रंग वाले पीतल का भी स्वरूप बतलाया जाए ताकि स्वर्ण के प्रति पूर्ण निष्ठा, एवं श्रद्धा व सच्चा ज्ञान हो सके। इस प्रकार श्रमण पर प्रथम तो सत्य स्वरूप पर विचार किया। तत्पश्चात् उस पर दृढ़ता लाने के लिए सदोष श्रमण स्वरूप पर वर्तमान की स्थिति को देखते हुए शोधात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है।
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सन्दर्भ ग्रन्थ 1. मूलाचार गा. 4/123 2. मूलाचार गा. 123 की आचारवृत्ति के आधार पर। 3. मूलाचार गा. 124; उत्तराध्ययन-पढमा आवस्सिया नाम विइया य निसीहिया एवं
दुपंच संजुत्ता सामायारी पवेइया 26, 27 4. मूलाचार गा. 4/132 5. वही गा. 4/133 6. मूलाचार गा. 140 7. वही गा. 141 8. जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास, पृ. 314, ले. श्री भागचन्द्र जी भास्कर। 9. ज्ञानार्णव श्लोक 923-24, ( सोलापुर प्रकाशन) 10. मू. आ. 516; राजवार्तिक 6/22/21/530/11; भ. आ./वि. 116/274/16;
घ. 8/3, 41/83/10, पु.सि.उ. 201; चा.सा. 53/3; अन.घ. 8/17,
भा.पा.टी. 77. 11. समयसार गा. 2 का हिन्दी टीकानुवाद 12. मूलाचार गा. 534-35 13. मूलाचार गा. 537 14. यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुस्ते रतिम् ।
यो यत्र रमते तरमादन्यत्र स न गच्छति ।। इष्टोपदेश श्लोक 43 ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासो नात्मदर्शिनाम्। दृष्टात्मना निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ।। समाधितन्त्र श्लोक 73 "तथेषां मध्ये आगमभाव सामायिकेन नो आगम भाव सामायिकेन च प्रयोजनमिति"
मूलाचार गा. 518 की आचार वृत्ति। 16. मूलाचार गा. 519-21 17. मूलाचार गा. 522 18. रत्नकरण्डक श्रावकाचार - सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव संति सर्वेऽपि। चेलोप
सृप्ट मुनिरिव गृही तदा याति यति भावम् ।। 102 ।। 19. मूलाचार गा. 533 .
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