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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
रहते हैं अर्थात् वसतिका आदि में अपनेपन की भावना रख कर उनमें आसक्त रहते हैं, इनमें मोह की बहुलता रहती है, ये रात-दिन उपकरणों के बनाने में लगे रहते हैं, असंयतजनों की सेवा करते हैं, और संयमीजनों से दूर रहते हैं । अतः पार्श्वस्थ नाम कहे जाते हैं।
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कुशील
आचरण या स्वभाव जिनका खोटा है वे कुशील कहलाते हैं। ये क्रोधादि कषायों से कलुषित रहते हैं, व्रत, गुण और शीलों से हीन हैं, संघ के साधुओं की निन्दा करने में कुशल रहते हैं, ये मूलगुण व उत्तरगुण से भी भ्रष्ट होकर संसार में भ्रमण करते हैं। ये इन्द्रिय-विषय एवं कषाय के तीव्र - परिणामों से युक्त होते हैं तथा व्रत, गुण, शील तथा चारित्र को तृणवत् समझते हुए स्वयं का एवं संघ का अपयश फैलाने में कुशल होते हैं। अतः ये कुशील कहे जाते हैं।
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संसक्त
जो असंयत के गुणों में अतिशय आसक्त रहता है, वह संसक्त है। यह आहार आदि की लम्पटता से वैद्यक, मन्त्र, ज्योतिष आदि के द्वारा अपनी कुशलता दिखाने में लगा रहता है, राजादिकों की सेवा करने में तत्पर रहता है।
अवसंज्ञक
जिनके सम्यग्दर्शन आदि गुण अपगत अर्थात् नष्ट हो चुके हैं वह अवसंज्ञक श्रमण हैं। ये चारित्रिक गुणों में शून्य हैं। जिनवचनों का भाव न समझने से यह चारित्रादि गुणों से भ्रष्ट हैं। तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी हैं, इनके मन में सांसारिक सुख की महत्ता है ।
मृग चरित्र -
मृग के समान अर्थात् पशु के समान जिनका चरित्र है वे मृगचरित्र कहलाते हैं। आचार्यों का उपदेश नहीं मानते हैं, स्वच्छन्दचारी है, एकाकी विचरण करते हैं, जिनसूत्र अर्थात् जिनागम में दूषण लगाते हैं, तप और श्रुत की विनय नहीं करते हैं, धैर्य रहित हैं । उद्दिष्ट भोजन करते हैं। अतः बेटाचारी मृग चरित्र श्रमण हैं। 308
ये पाँचों जिनधर्म बाह्य है-308। अतः इनकी संगति का निषेध किया गया है। तथा इनकी वंदनादि करना नरक का कारण कहा है। पंचम काल में भ्रष्ट साधुओं की संख्या बतलाते हुए चर्चा संग्रह में310 कहा है कि " साढ़े सात करोड़ जिनमुद्राधारी नग्न द्रव्यलिंगी मुनि परिणाम भ्रष्ट नरक जासी बहुरि याका सेवक श्रद्धानी पुरूष 55 करोड़ 65 लाख 25