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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आ. कुन्दकुन्द कहते हैं कि "जो धर्म मैं निरुद्यमी है, दोषों का घर है, इक्षुफल समान निष्फल है गुण के आचरण से हीन है, वह नग्न रूप से नट श्रमण है, भांडवत् वेशधारी है। अब, नग्न होने पर भांड का दृष्टान्त सम्भव है, परिग्रह रखे तो यह दृष्टान्त भी नहीं बनता। पाप से मोहित हुयी है बुद्धि जिनकी ऐसे जो जीव जिनवरों का लिंग धारण करके पाप करते हैं, वे पाप मूर्ति मोक्षमार्ग में भ्रष्ट जानना।301
__पं. टोडरमल जी ने शिथिलाचारियों द्वारा दी जाने वाली युक्तियाँ देकर और उनका निराकरण करते हुए मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा कि
प्रश्न- गुरु बिना तो निगुरा कहलायेंगे और वैसे गुरु इस समय दिखते नहीं है, इसलिए
इन्हीं को गुरू मानना ? उत्तर- निगुरा तो उसका नाम है जो गुरु मानता ही नहीं। तथा जो गुरु को तो माने,
परन्तु इस क्षेत्र में गुरु का लक्षण न देखकर किसी को गुरु न माने तो इस श्रद्धान से निगुरा होता नहीं है। जिस प्रकार नास्तिक तो उसका नाम है जो परमेश्वर को मानता ही नहीं, और जो परमेश्वर को तो माने परन्तु इस क्षेत्र में परमेश्वर का लक्षण न देखकर किसी को परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नहीं है।
उसी प्रकार यह जानना। प्रश्न - जैन शास्त्रों में वर्तमान में केवली का तो अभाव कहा है, मुनि का तो अभाव नहीं
कहा है। उत्तर
ऐसा तो कहा नहीं है कि इन देशों में सद्भाव रहेगा ; परन्तु भरत क्षेत्र में कहते हैं सो भरत क्षेत्र तो बहत बड़ा है कहीं सदभाव होगा इसलिए अभाव नहीं कहा है। यदि जहाँ तुम रहते हो उसी क्षेत्र में सद्भाव मानोगे, तो जहाँ ऐसे भी गुरु नहीं मिलेंगे वहाँ जाओगे तब किसको गरू मानोगे? जिस प्रकार हंसों का सदभाव वर्तमान में कहा है, परन्तु हंस दिखायी नहीं देते तो पक्षियों को तो हंस माना नहीं जाता, उसी प्रकार वर्तमान में मुनियों का सद्भाव कहा है ; परन्तु मुनि दिखायी नहीं देते तो औरों को तो मुनि माना नहीं जाएगा।-----गुरु नाम बड़े का है,
अतः धर्म गुरू तो चारित्र की अपेक्षा से माना जाएगा। प्रश्न- __ ऐसे गुरु तो वर्तमान में यहाँ नहीं हैं, इसलिए जिस प्रकार अरहन्त की स्थापना
प्रतिमा में की है, उसी प्रकार गुरुओं की स्थापना इन वेषधारी में है ? उत्तर- जिस प्रकार राजा की स्थापना चित्रादि द्वारा करे तो वह राजा का प्रतिपक्षी नहीं
है, और कोई सामान्य मनुष्य अपने को राजा मनाये तो राजा का प्रतिपक्षी होता है, उसी प्रकार अरहन्तादिक की पाषाणादि में स्थापना बनाये तो उनका प्रतिपक्षी नहीं है, और कोई सामान्य मनुष्य अपने को मुनि मनाये तो वह मुनियों का प्रतिपक्षी हुआ। इस प्रकार भी स्थापना हो, तो अपने को अरहन्त भी मनाओ, परन्तु वे निर्ग्रन्थ, यह बहुत परिग्रह के धारी - यह कैसे बनता है?