Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 264
________________ सदोष श्रमण कन्याओं को साथ में रखना, उनका संसर्ग करना, एकाकी साध्वी को बगल के कमरे में सोने देना, इत्यादि धर्म-हास क्रियाओं को अवश्य रोकना चाहिए। साम, दाम, दण्ड, भेद से द्रव्य-क्षेत्र -काल, भाव की मर्यादा रखते हुए अवश्य धर्म की संरक्षा करनी चाहिए। 299 इस सन्दर्भ में यह तर्क किया जाता है कि श्रमण की परीक्षा करने का अधिकार नहीं । परन्तु जब समन्तभद्र ने देवागमस्त्रोत में भगवान की परीक्षा कर नमस्कार किया तो श्रावक, श्रमण की परीक्षा क्यों नहीं कर सकता है। जब श्रावक किसी को अपनी श्रद्धा देगा तो श्रद्धेय की पूर्ण परीक्षा का अधिकार उसे प्राप्त है 1 263 पद्मपुराण में कथा आती है कि, एक आकाशगामीश्रद्विधारी ऋषि वर्षाऋतु में आहारार्थ नगर आए तो एक सेठ ने भ्रष्ट जानकर आहार नहीं दिया, परन्तु बाद में सही स्थिति का पता लगने पर उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ । यहाँ यह तो फलित होता ही है कि सही स्थिति का ज्ञान न होने पर आहार नहीं देना चाहिए, क्योंकि आहारदान में नवधा भक्ति मुख्य है, और नवधा भक्ति, बिना श्रद्धा कैसे हो सकती है ? और श्रृद्धा गुणवानों को ही दी जाती है । जैसे सर्द रात के अंधेरे में अकेली विरहिणी पतिव्रता स्त्री दरवाजे पर स्थित पुरुष के विषय में जब तक शंका बनी रहती है तब तक दरवाजा नहीं खोलती है, भले ही वह पुरुष उसका पति ही क्यों न हो, शंका होने पर भी दरवाजा खोलने का अर्थ है कि, वह अपने सतित्व के प्रति पूर्ण सजग एवं निष्ठावती नहीं, और यह कार्य किसी भी पति के लिए अति असम्माननीय है, परन्तु यदि शंकास्पद स्थिति में दरवाजा न खोलना, यह उसका प्रमाद लो कहा जा सकता है; जिसका कालान्तर में क्षमा आदि के रूप में प्रायश्चित्त विधान है, परन्तु यहाँ पति के प्रति पूर्णनिष्ठा एवं सम्मान है । शंकास्पद स्थिति में भी दरवाजा खोलना का कोई प्रायश्चित्त नहीं, क्योंकि यह अपराध है। इस सम्बन्ध में पं. डालूराम जी सम्यक् प्रकाश में लिखा है कि ने " पति भरता वनिता तनो, है भरतार विदेश । तौऊ ता सुमिरत रहे, पर - नर गहै न लेश ।। त्यौं सांचे जैनी सुगुरू दूरि देशि में पेखि । ता सुमरै मानै सदा, गुरूनि गहे अनिमेष ।। 132-33।। भ्रष्ट चारित्रों को भी मुनि वेप मानकर पूजने वालों के प्रति खेद व्यक्त करते हुए श्वे. आचार्य हरिभद्र भी लिखते हैं कि "कुछ ना समझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थंकरों का वेप है, इसे नमस्कार करना चाहिए । अहो ! धिक्कार हो इन्हें! मैं अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करूँ, 300

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