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सदोप श्रमण
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हजार 5 सौ बीस भ्रष्ट गुरु का श्रद्धानी पंचमकाल में नरक जासी, और परिग्रही तो नर्क जाऐंगे तिनकी संख्या नाही।
श्रमणाचार के स्वरूप पर एवं उसके भ्रष्टाचार पर जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि भ्रष्टाचार की विभिन्न गतिविधियाँ अनादि से मिलती हैं, आज के समय यह कोई नई बात नहीं है, परन्तु इसका समय समय पर विरोध हुआ जिससे सत्यस्वरूप बना रहा यह भी सत्य है। वैसे भ्रष्टाचार के बहुत हद तक उत्तरदायी श्रावक गण ही हैं, यदि वे ऐसे श्रमणों को संरक्षण देना बन्द कर दें तो वह अंकुश में आ सकता है। समय-समय पर जो श्रमणों की सेवा के लिए समितियाँ बनी, वे ही इस स्वरूप के लिए सबसे ज्यादा घातक रहीं, क्योंकि इससे आम आदमी की जिम्मेवारी समाप्त हो जाती है, तथा विशिष्ट नेता भ्रष्टाचार को पोषित करते रहते हैं। श्रमण संघ की सेवा के लिए प्राचीनकाल में समितियाँ बनती थी, जिसका परिणाम देखें
"यह वीर संवत् 840 वें वर्ष की दशा का वर्णन (विशेष रूप से श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के परिप्रेक्ष्य में ) है। -"जैन विहारों को खूब दान दिया, प्रायः ( इनकी ) आधी आमदनी सार्वजनिक कर्मकाण्डों से संबद्ध व्ययों पर खर्च की जाती थी, और शेष भाग आधा भिक्षुओं और भिक्षुणिओं के पालन-पोषण में व्यय होता था।
राज्य और समाज द्वारा इस धर्म को प्रदान किया गया प्रचुर संरक्षण जैन मुनियों के एक वर्ग में (श्वे. सम्प्र. ) शिथिलता उत्पन्न कर रहा था। इन्होंने यह तर्क करना शुरू कर दिया कि उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वे वर्ष भर परिभ्रमण करते रहे। वे स्थायी रूप से विहारों में बस सकते हैं। कुछ भिक्षुओं ने रंगीन और सुवासित वस्त्र धारण करने शुरू किये, अन्य साधुओं ने सवारियों तथा आरामदेह बिस्तरों का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। कुछ ने भविष्य कथन का तथा जिनमूर्तियों को बेचने का पेशा शुरू कर दिया। जैन धर्म के कुछ नेता यथासमय इन प्रवृत्तियों की निन्दा करने के लिए आगे बढ़े, किन्तु उनके प्रयत्न केवल आंशिक रूप से ही सफल हुए।"311
वस्तुतः भ्रष्टाचार तो तीर्थंकर आदिनाथ के समय से ही था उस समय उनके प्रतिपक्ष में 4000 भ्रष्ट साधुओं की विशाल श्रृंखला थी। अर्थात् एक सच्चा साधु व 4000 भ्रष्ट साधुओं का अनुपात था। यह चतुर्थकाल के तीर्थंकर के काल का अनुपात था। आज पंचम काल की इस अवसर्पिणी में कितना अनुपात होगा यह तो कल्पना का विषय है। वैसे आज जो अधिकांश मुनियों को "चतुर्थकालवत्" की उपाधि दी जाती है, यह वस्तुतः उन 4000 साधुओं की श्रृंखला की ओर संकेत ही है। अतः भ्रष्ट साधुओं का विरोध कर समाप्त करना एक असम्भव अनुष्ठान है, परन्तु विवेकशील पुरुपों को दोष बतलाकर गुणों की ओर आकर्पित करना यह भी एक पद्धति है। अतः सदोष का स्वरूप बतलाकर निर्दोष