Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 266
________________ सदोप भ्रमण 265 प्रश्न - अब श्रावक भी तो जैसे सम्भव है वैसे नहीं है, इसलिए जैसे श्रावक वैसे मुनि ? उत्तर- श्रावक संज्ञा तो शास्त्र में सर्वगृहस्थ जैनियों को है। श्रेणिक तो असंयमी था, उसे उत्तर पुराण में श्रावकोत्तम कहा। बारह सभाओं में श्रावक कहे हैं, वहाँ सर्व व्रतधारी नहीं थे-----मुनि संज्ञा तो निर्ग्रन्थ के सिवाय कहीं नहीं है। आदिनाथ जी के साथ चार हजार राजा दीक्षा लेकर पुनः भ्रष्ट हुए, तब देव उनसे कहने लगे -जिनलिंगी होकर अन्यथा प्रवोंगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोड़कर जो तुम्हारी इच्छा हो तो तुम जानो।" इसलिए जिनलिंगी कहलाकर अन्यथा प्रवर्ते, वे तो दंड योग्य हैं, वंदनादि योग्य कैसे होंगे 2302 इस प्रकार पंडित टोडरमल जी ने कुन्दकुन्द को साक्षी देकर इस प्रकरण में लज्जादि से भी नमस्कार आदि करने का निषेध किया है, और इनको नमस्कार का अर्थ शिथिलाचार को प्रोत्साहन बतलाकर पाप का भागी बतलाया है। गृहस्थपने में बहुत परिग्रह रखकर कुछ प्रमाण करे तो भी स्वर्ग- मोक्ष का अधिकारी होता है, और मुनिपने में किंचित परिग्रह अंगीकार करने पर भी निगोदगामी होता है। इसलिए ऊँचा नाम रखाकर नीची प्रवृत्ति युक्त नहीं है। लोगों की अज्ञानता तो देखो, कोई एक छोटी सी प्रतिज्ञा भंग करे तो उसे पापी कहते हैं और ऐसी बड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखकर भी उन्हें गरु मानते हैं. उनका मनिवत सन्मानादि करते हैं, सो शास्त्र में कत कारित, अनुमोदना का फल कहा है, इसलिए उनको भी वैसा ही फल लगता है।303 इस प्रकार अनेक तर्क एवं प्रमाण देकर कुगुरु के वंदन का निषेध पं. टोडरमल जी ने किया है। भगवती आराधना में अयथार्थ श्रमण की पहिचान बतलाते हुए कहा कि "जो लोगों का अनुसरण करते हैं और सुख की इच्छा करते हैं, यथेष्ट आहारादि सुखों में तल्लीन होकर जो मूर्ख मनि रत्नत्रय में अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है; उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका, इनका जो साधु ग्रहण करता है। शरीर भोग व सांसारिक कार्यों में अनुरक्त रहता है, संघ से विरोध करता है, कुशील सेवन करता है, स्वच्छन्द रहता है, गुरुकुल में नहीं रहता, राजा आदि की सेवा करता है- वह अज्ञानी है, जिनधर्म का आराधक नहीं है।304 ऐसा मलिनचित्र श्रमण श्रावक के समान भी नहीं है।305 अपितु मोही मुनि से निर्मोही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।306 इस प्रकार के अवंदनीक भ्रष्ट मुनियों को आ. वट्टकेर ने पाँच प्रकार पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसंज्ञक और मृग चारित्र, के भेद से विभाजित किया है। 307 ये ज्ञान और चारित्र में नियुक्त नहीं हैं और मन्द संवेग वाले होते हैं। पार्श्वस्थ - जो संयमों के गुणों से "पार्श्वे तिष्ठति" इति पार्श्वस्थ, अर्थात जो संयत के गुणों की अपेक्षा पास में - निकट में रहता है वह पार्श्वस्थ है। ये मुनि वसतिका आदि से प्रतिबद्ध

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