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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
श्रमण वर्ग में आगत वर्तमान में शिथिलता यह कोई अनहोनी बात नहीं है। जब हम प्राचीन साहित्य, एवं शिलालेखों का अध्ययन करते हैं, तो हम यह पाते हैं कि पहले भी श्रमण वर्ग में काफी शिथलताएं रहीं थीं, और उसी को वे अपना स्वरूप येन- केन प्रकारेण माने बैठे थे। परन्तु समय-समय पर सच्चे श्रमण हुए जिन्होंने आदर्श जीवन-यापन करते हुए इनका विरोध किया।
शिथिलता के सबसे ज्यादा अवसर भोगोपभोग के साधना स्थल शहर हैं। अतः प्राचीन काल में श्रमण शहर में मात्र आहार व धर्मोपदेश के निमित्त ही आते थे और शेष काल वन-उपवन में ही रहते थे। मूलाचार में कहा कि हे मुनि! भिक्षावृत्ति से भोजन करो, वन में रहो एवं लोक व्यवहार रहित एकाकी स्थान में परिग्रह रहित होओ279 किन्तु धीरे-धीरे पाँचवी छठी शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे। इससे श्वेताम्बर समाज में वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये। तो दिगम्बर सम्प्रदाय में उसी काल में कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे।280
प्राणी जगत का यह मनोविज्ञान है कि यदि अनधिकृत स्थल पर वह कुछ समय रहने लगे, और कोई आपत्ति न करे अथवा न कर सके, तो फिर उस स्थल पर अपने अधिकार का दावा सा करने लगता है, क्योंकि फिर उसकी मनोवृत्ति उसी जगह पर रहने की हो जाती है। वर्तमान काल में मकान/दुकान के किरोदार भी यदि कुछ वर्ष किराये पर कहीं रह लें, तो उनको हटाना मुश्किल है तथा वह भी उस अनधिकृत जगह पर अपने अधिकार का ही दावा करने लगता है। जिससे समाज में विसंवाद पैदा होता है। यही स्थिति श्रमण वर्ग में चैत्यवास में रहने को प्रेरित की होगी। श्रामण्यार्थी को दीक्षा हेत वन में जाने का विधान है, और जैन कथानकों में ऐसे ही सभी कथानक मिलते हैं। एक घर को छोड़कर दूसरे घर में रहकर अपने को साधु घोषित करना, गजस्नान है, जैसे हाथी पहले स्नान करे, परन्तु बाद में फिर अपने मस्तक पर मिट्टी डाले तो स्नान का औचित्य ही क्या रहा? जो पुरुष संसार के विषय कषायों को छोड़कर मुनि बनना चाहता है, तो क्या वह विषय कपाय के स्थलों को नहीं छोडेगा? और ये स्थल शहर हैं अतः शहर में श्रमण नहीं रह सकते हैं, यह तो "लौट कर बुद्धू घर को आये" जैसी स्थिति है। शहर में लोगों के मध्य में रहने से, श्रमण में दोषों की सम्भावना तो रहती है ही, साथ ही श्रावकों का श्रमण से अति परिचय होने से उनमें कदाचित् विद्यमान दोषों का परिचय होने से श्रमण वर्ग के प्रति अश्रद्धा भी होती है।
यह हम पहले ही कह आये हैं कि श्रमण भी एक मानव हैं, अतः उनमें भी सूक्ष्म दोष कदाचित् आते हैं, परन्तु वे आचार्य के समीप जाकर प्रायश्चित्त विधि से दोष मुक्त होकर शुद्ध हो जाते हैं अथवा आचार्य उनको उचित दंड आदि देकर शुद्ध कर लेते हैं। परन्तु यह सब श्रावकों को भी पता चल जाने पर, सम्पूर्ण संघ ही अश्रद्धेय होता है, लोगों में श्रमणों