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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
राजनीति की कथा करते हैं। और समाज उनको एलाचार्य, सिद्धान्त चक्रवर्ती, नाम देती है। कन्नड भाषा के प्रोफेसर श्री नन्द कुमार ने "आषाढ भूति विद्यानंद" नामक पुस्तक लिखी है, उसमें इनको छद्मतापस कहा है। यह पुस्तक 1982 में प्रकाशित हुयी थी। जिसकी प्रकाशक एक संस्था थी। चूंकि कुछ नेताओं ने इस पुस्तक को जलाकर नष्ट कर दिया था। तथापि इससे मुनि विद्यानन्द के ऊपर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह अवश्य लग गया है। पंडित मोतीचन्द जी कोठारी लिखते हैं कि ये रात्रि में बोलते हैं, जो कि मैंने भी स्वयं कई बार देखा है। साथ ही कोठारी आगे लिखते हैं कि ये रात्रि में जलपान करते देखे गये, तथा लोच न करके कैंची से बाल काटते हुए पाये गये हैं।288 चूंकि यह एक राजनैतिक साधु भी हैं। अतः जैन समाज के नेता प्रतिष्ठा लोभ में कछ नहीं कहते हैं। यहाँ तक कि इनको आचार्य तक बना दिया। डोली विहारी आचार्य देशभूषण के संघ से अलग होकर एकल विहारी हुए। देशभूषण के पट्ट शिष्य बालाचार्य वाहुवली सागर जो कि देशभूषण संघ के वरिष्ठ साधु हैं, वे ही नियमानुसार आचार्य पद के उत्तराधिकारी होते हैं। उन्हीं के साथ संघस्थ मुनि रहना चाहते हैं। परन्तु विद्यानन्द को आचार्य पद देकर विवेक हीनता का परिचय दिया गया। फलस्वरूप संघस्थ किसी मुनि ने इनको अपना आचार्य नहीं स्वीकारा और बालाचार्य के संघ में ही समस्त संघ हैं। इस प्रकरण को लेकर अदालत में मुकदमें भी चल रहे हैं। यह सब विवाद आचार्य देशभूषण के प्रश्नांकित चरित्र व विवेक हीनता का प्रतिबिम्ब है। यह भक्त समाज की अज्ञानता का एक ज्वलन्त नमूना भी है।
इस सम्बन्ध में पंडित आशाधर जी ने एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें कहा कि भ्रष्ट पंडितों और वठर मुनियों ने जिनदेव का निर्मल शासन मलिन कर दिया है।289
श्रमणाचार का 8 वीं सदी से लगभग 13 वीं सदी में और विशेष रूप से 10-13 वीं सदी का इतिहास काफी उथल-पुथल लिये था। एक ओर भ्रष्टाचार बढ़ रहा था तो दूसरी ओर उसकी आलोचना डट कर हो रही थी। उस समय मात्र जैन धर्म में ही नहीं अपितु प्रत्येक भारतीय धर्म में भ्रष्टाचार और उसका विरोध क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में हो रहा था। उस समय जैनेतर शक्तियाँ जैनधर्म को तोड़ने में लगी हुयी थीं। परन्तु आज की स्थिति अलग ही है, आज जैनेतर धर्मों का कोई विशेष आक्रमण नहीं, परन्तु आन्तरिक रूप से श्रमणों के कृत्य जैन धर्म के विकास में बाधा हैं। आज भी 10-13 वीं सदी की तस्वीर उपस्थित हो रही है। आज इस 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विशेष रूप में सन् 70 से आज सन् 87 तक की स्थिति श्रमणाचार को लेकर पर्याप्त विवादास्पद रही है। जिसको लेकर सन् 81 में "श्रवणवेलगोला" में श्रमण आचार संहिता को लेकर प्रस्ताव पारित हुये थे, परन्तु इस प्रकार की जागृति श्वेताम्बर श्रमणों में पूर्व से ही जून 1956 में ही आ गयी थी। परन्तु खेद, कि दोनों ही सम्प्रदाय अपने उद्देश्य में लगभग असफल रहे, क्योंकि इन दोनों कार्यक्रमों का आयोजन श्रमणों ने राजनैतिक उद्देश्य को लेकर किया था, दिगम्बर श्रमणों में मुनि विद्यानन्द आयोजक थे जो स्वयं "एकलविहारी" एवं महानगरीय