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सदोष अमण
द्वेषमूलक भावों से पूर्ण छिद्रान्वेषण निन्दनीय कहा जा सकता है। किसी प्रयोजन आदि की अपेक्षा किसी के दोषों को गौण किया जा सकता है, परन्तु श्रद्धा के केन्द्र पर ही विद्यमान दोष को गौण करना अविवेक एवं अन्धश्रद्धा की ही परिचायक है । बनती हुयी नाव मैं विद्यमान छिद्र को उसके सौन्दर्य आदि की अपेक्षा से तथा अभी बन रही है, परिपूर्ण नहीं है अतः उसके छिद्र को गौण करना, स्वीकृत हो सकता है, परन्तु तैरती हुयी नाव में सुई के बराबर छिद्र को गौण करना, अपनी साक्षात् मृत्यु को ही वरण करना है । तैरती हुयी नाव में किसी यात्री के द्वारा छिद्रान्वेषण एक प्रशंसनीय कार्य है, क्योंकि उसमें सभी यात्रियों की जीवन रक्षा का कार्य हुआ है । छिद्रान्वेषण, यह कतई आवश्यक नहीं कि एक इंजीनियर ही करे, परन्तु वह बालक भी जो उस नाव में यात्रा कर रहा है छिद्रान्वेषण प्राण- रक्षा हेतु कर सकता है । परन्तु इन सब कार्यों में यह एक बहुत बडी शर्त है कि वह द्वेपमूलक न हो, दूसरों को नीचे गिराने की प्रवृत्ति न हो तो, एक सदभिप्राय से किया गया छिद्रान्वेषण नैतिक अपराध नहीं है।
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श्रमण तैरती हुयी नाव है, यदि सात तत्वों की भाषा में कहें तो संवर और निर्जरा करने वाले एक व्यक्तित्व हैं। नाव उसे ही कहते हैं कि जो तैरकर खुद पार होवे, तथा दूसरों को भी पार करे, इसी में उसके स्वरूप की सुरक्षा और उसका सौन्दर्य है। पानी के बाहर रखी हुयी नाव तो एक लकडी का पिटारा ही है, फिर भले ही वह कितनी ही सुन्दर क्यों न हो। जो नाव का कार्य करे वही नाव है । तैरती हुयी नाव पर छिद्रान्वेषण का हमें पूर्ण अधिकार है । नाविक यदि इसके लिए मना करे तो हमें ऐसी नाव को तिलांजलि दे देनी चाहिए। ऐसे ही, श्रमण संसार समुद्र को पार करने वाली ऐसी नाव है, जो खुद तैरती है और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करती है। अतः उनमें आगत थोड़ा सा भी दोष, उनको तो डुबोयेगा ही साथ ही अनन्त जीवों का घात करेगा । अतः मात्र उनके दोष को देखकर बतलाया जाना यह बात नहीं, अपितु अनन्त जीवों के होने वाले अहित को बचाने के सदभिप्राय रूप लोकोपकार की भावना से दोष को बतलाना मानवता की एक बहुत बड़ी सेवा है। अतः इस लोकोपकार की महत्तम भावना को लेकर सदोष भ्रमण स्वरूप की मीमांसा का यह प्रकरण अपने शोध निबन्ध में लिया है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि वह समाज का सही दिशा निर्देशन करे । श्रमण सामाजिक नहीं परन्तु समाज को प्रभावित करने वाले प्राणी हैं, अतः उसके स्वरूप की मीमांसा भी अतिआवश्यक है। भ्रमण यदि देश और समाज का बहुत उपकार करते रहे हैं, तो श्रमण के शिथिल वर्ग ने देश और समाज का बहुत बडा अपकार भी किया है। दकियानूसी, अन्धविश्वासी, दैवत्व की भावना को ठेस पहुँचाने वाले भी रहे हैं। वर्तमान काल में इसका ज्वलन्त प्रमाण जैन समाज में सत् साहित्य का बहिष्कार, शिक्षा में रुकावट "लघुविद्यानुवाद" के रूप में योनाचार को बढ़ावा देने वाले ये श्रमणाभास ही रहे हैं।
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