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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
भोजन पान आदि ग्रहण कर लेते हैं तो उनके लिए वह संव्यवहरण
दोष होता है। 6. दायक दोष - धाय,
धाय, मद्यपायी, रोगी, मृतक से सूतक सहित, नपुंसक, पिशाच, ग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आये हुए, मूछित, वमन करके आये हुए, रुधिर सहित, वेश्या, श्रमणिका, तैलमालिश करने वाली, अतिवाला, अतिवृद्धा, खाती हुयी, गर्भिणी, अंधी, किसी के आड़ में खड़ी हुई, बैठी हुयी. ऊँचे पर खड़ी हुयी या नीचे स्थान पर खड़ी हुयी आहार देवे तो दायक दोष होता है एवं फूंकना, जलाना, सारणकरना, ढ़कना, बुझाना, तथा लकड़ी आदि को हटाना या पीटना इत्यादि अग्नि का कार्य करके, लीपना-धोना करके तथा दूध पीते हुए बालक को छोड़कर इत्यादि कार्य करके आकर यदि दान देते हैं तो
दायक दोष होता है। 7. उन्मिश्र दोष - पृथ्वी, जल, हरितकाय, बीज और सजीव त्रस इन पाँचों से मिश्र
हुआ आहार उन्मिश्र होता है। 8. अपरिणत दोष -तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्णजल, चने का धोवन, तुष धोवन,
विपरिणत नहीं हुए और भी जो वैसे हैं, परिणत नहीं हुए हैं, उन्हें
ग्रहण नहीं करे। 9. लिप्त दोष - गेरु, हरिताल, सेलखडी, मनः शिखा ( आमपिष्ट या चावल आदि का
चूर्ण) गीला आटा कोपन आदि सहित जल इनसे लिप्त हुए हाथ या
बर्तन से आहार देना वह लिप्त दोष है। 10. परित्यजन दोष -बहुत सा गिराकर या गिरते हुए दिया गया भोजन ग्रहण कर और
भोजन करते समय गिराकर जो आहार करना है वह व्यक्त दोष
उपर्युक्त दश अशन दोष कहे गये हैं, ये सावद्य को करने वाले हैं, इनसे जीव दया नहीं पलती है और लोक में निन्दा भी होती है। अतः ये त्याज्य हैं।
संयोजनादि दोष -
भोजन सम्बन्धी ग्रासैपणा के संयोजना, प्रमाण, अंगार, और धूम इन चार दोषों का स्वरूप प्रस्तुत है - (1) संयोजना दोष - ठण्डा भोजन उष्ण जल से मिला देना, या ठण्डे जल आदि पदार्थ
उष्ण भात आदि से मिला देना। अन्य भी परस्पर विरुद्ध वस्तुओं को मिला देना
संयोजना दोष है। (2) प्रमाण दोष - व्यंजन आदि भोजन से उदर के दो भाग पूर्ण करना और जल से
उदर का तीसरा भाग पूर्ण करना तथा उंदर का चतुर्थ भाग खाली रखना वह