Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 242
________________ विश्राम चर्या 241 दोष हैं। एषणा के दोष यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं ऐसी शंका जिसमें हो वह वसतिका शंकित दोष से दुष्ट है। उसी समय लीपी-पोती गयी या धोई गयी वसतिका भ्रक्षित दोष से दूषित है। सचित्त, पृथिवी, जल, अग्नि, वनस्पति, वगैरह अथवा त्रस जीवों के ऊपर आसन वगैरह रखकर "यहाँ आप विश्राम करें" ऐसा कहकर दी गयी वसतिका निक्षिप्त दोष से दूषित है। सचित्त मिट्टी वगैरह के आच्छादन को हटाकर दी गयी वसतिका पिहित दोष से दषित है। लकडी वगैरह को घसीट कर ले जाते हुए पुरुष के द्वारा बतलायी गयी वसतिका साधारण दोष से दुष्ट है। मरण के अशौच या जन्म के अशौच से युक्त गृहस्थ के द्वारा अथवा रोगी गृहस्थ के द्वारा दी गयी वसतिका दायक दोष से दूषित है। स्थावर जीवों और प्रस जीवों से युक्ति वसतिका अन्मिश्र दोष से दूषित है। मुनियों को जितने शरीर प्रमाण जमीन ग्रहण करना चाहिए उससे अधिक जमीन ग्रहण करना प्रमाणातिरेक दोष है। इस प्रमाण में हवा ठंड या गर्मी वगैरह का उपद्रव है ऐसी बुराई करते हुए वसतिका में रहना धूम दोष है। यह वसतिका विशाल है, इसमें वायु का उपद्रव नहीं है, यह बहुत अच्छी है, ऐसा मानकर उसके ऊपर राग भाव रखना इंगाल दोष है।248 इस प्रकार उद्गम उत्पादन और एषणा दोष से रहित वसतिका मुनियों के योग्य है। वर्षाकाल : जैन श्रमण यद्यपि निरन्तर चलते रहते हैं, तथापि किसी काल-विशेष में यदि उनके पद विहार से जीवों का घात हो रहा हो, तो उनके उपकारार्थ व अपने अट्ठाइस मूलगुणों के संरक्षणार्थ विहार भी नहीं करते हैं। साधु के विहार के दौरान यह स्थिति वर्षाऋतु में आती है। जब वे अपने विहार को विराम देते हैं। यह विराम अवधि चार माह की होती है। वर्षाऋतु में साधु के विहार की विरामवृत्ति उसके लिए अनिवार्य व महत्वपूर्ण अंग है। वे इन चार माह एक ही स्थान पर रहकर भ्रमण का त्याग कर देते हैं।249 इसका कारण यह है कि वर्षाऋतु में सूक्ष्म-स्थूल सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त रहती है। उस समय विहार करने पर महान् असंयम रहता है। वर्षा और शीत वायु का प्रकोप तथा वापी और जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जलादि में छिपे हुए लूंठ, कण्टक, आदि से कष्ट पहुँचता है।250 इस तरह का विवेचन श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में प्राप्त होता है। इन परिस्थितियों को देखकर (श्वे. ) आचरांग सूत्र में कहा कि मुनि को वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षाकाल में यथावसर प्राप्त वसति में ही संयत रहकर वर्षावास करना चाहिए।251

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