Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 245
________________ 244 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा से समाधिमरण कराने हेतु विचार विमर्श करके ही स्वीकृति देते हैं। श्रमण दूसरे संघ में जब प्रयोजन-वश पहुँचता है, तो उसको आते देखकर गण के आचार्य एवं सभी श्रमण, उसके प्रति सम्मान, वात्सल्य, जिन-आज्ञा, संग्रह (ग्रहण ) एवं उन्हें प्रणाम करने हेतु तत्काल उठकर खडे हो जाते हैं।298 तथा सात कदम आगे बढ़कर उसके प्रति आदर और हर्ष भाव व्यक्त करके परस्पर प्रणाम करते हैं। और अपने साथ लाकर योग्य करणीय कार्यों में सम्पन्न करके सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चरित्र रूप रत्नत्रय आदि के निर्विघ्न आचरण की कुशलता के प्रश्न पूछते हैं। तत्पश्चात् उस दिन तो वह आगन्तुक विश्राम करता है।260 अथानन्तर तीन दिन तक उसे आवश्यक क्रियाओं, संस्तर, मलमूत्र-विसर्जन स्थल आदि तथा स्वाध्याय आदि के विषय में जानकारी एवं इन सभी कार्यों में परीक्षा हेतु उसके साथ रहकर उसे सहयोग दिया जाता है।261 आगन्तुक व गणस्थ श्रमण परस्पर में प्रतिलेखन, भिक्षा, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण तथा तेरह क्रियाओं आदि के ज्ञान एवं इनके आचरण की विशुद्धता आदि की परीक्षा करते हैं। आगन्तुक श्रमण से सन्तुष्ट होकर दूसरे या तीसरे दिन उसके द्वारा निवेदन किये गये प्रयोजन के अनुसार, तथा उसका सम्पूर्ण परिचय आदि प्राप्त करके और विनीत, उत्साही तथा बुद्धिमान समझ कर, उसे स्वीकार करके अपने ज्ञान की सामर्थ्यानुसार पढाना प्रारम्भ करते हैं।262 इसी तरह से पूर्ण सन्तुष्टि होने पर ही आगन्तुक श्रमण शिष्य रूप में स्वीकार किया जाता है। शरीर त्याग (समाधि मरण): आयु कर्म के क्षय से एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर को ग्रहण करना मरण कहलाता है। शरीर के प्रति अति आसक्ति वाले संक्लेश भाव से जिनका शरीर छूट जाता है, वह मरण कहलाता है। परन्तु जो अति साहस से देश या समाज की रक्षा भाव से परहित रक्षार्थ बुद्धिपूर्वक शरीर का त्याग करते हैं वह "वीर गति" कहलाती है। लेकिन जो धर्मबुद्धि से, स्वतः नाश को प्राप्त हो रही शरीर की अवस्था को देखकर, उसके ऐसे ही स्वरूप का विचार करते हुए, निरासक्त होते हुए धीर- वीर भाव से शरीर का त्याग करते हैं, और नया शरीर कर्मोदय वश प्राप्त होता है, उसे प्रत्याख्यान, सल्लेखना, समाधिमरण आदि नामों से कहा जाता है। श्रमण ऐसा ही मरण करते हैं, परन्तु जो ऐसा करते हुए नया शरीर ग्रहण नहीं करते हैं उसे निर्वाण कहते हैं। जिसके होने पर सिद्ध दशा प्राप्त होती है। अतिवृद्ध या असाध्य रोग हो जाने पर, अथवा अप्रतिकार्य उपसर्ग आ जाने पर अथवा दुर्भिक्ष आदि के होने पर साधक साम्य भाव पूर्वक अन्तरंग कषायों का सम्यक् प्रकार से दमन करते हुए, भोजन आदि का त्याग करके, धीरे-धीरे शरीर को कृश करते हुए, इसका त्याग कर देते हैं। इसे ही सल्लेखना या समाधि मरण कहते हैं। सभ्यग्दृष्टि जनों को यह

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