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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
उपर्युक्त 16 भोजन के उद्गम के दोष श्रावक के आश्रित होते हैं, पर यदि श्रमण को ज्ञात होने पर वे इस प्रकार का आहार नहीं लेते हैं। इनके बहुत से दोष तो अनुमानाश्रित है एवं कुछ अवधिज्ञानी ही जान सकते है। परन्तु ज्ञात होने पर आहार ग्रहण नहीं करेंगे।
उत्पादन के 16 भेद 1. धात्री दोष - धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना, आदि
करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि
का धात्री दोष है। 2. दूतदोष - दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुंचा कर आहार
लेना। 3. निमित्त दोष - स्वर, व्यंजन, आदि निमित्त ज्ञान से श्राक्कों को हानि लाभ बताकर
खुश करके आहार लेना 4. आजीवका दोष-अपनी जाति कुल या कला योग्यता, ईश्वरता आदि बताकर
दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक
दोष है। 5. वनीपक दोष -कुत्ता, कृपण, अतिथि, ब्राह्मण, पाखण्डी, श्रमण (आजीवक) और
कौवा इनको दान आदि करने से पुण्य है या नहीं-ऐसा पूँछने पर
पुण्य है ऐसा बोलना वनोपक वचन है। 6. चिकित्सा दोष - औषधि आदि बतलाकर दातार को खुश करके आहार लेना। 7. क्रोध दोष- क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना। 8. मान दोष - मान करके आहार उत्पादन करा कर लेना। 9. माया दोष - कुटिल भाव से आहार उत्पादन करा कर लेना। 10. लोभ दोष - लोभाकांक्षा दिखाकर आहार कराकर लेना। 11. पूर्व संस्तुति दोष - प्रथम दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन करा कर लेना। 12. पश्चात् स्तुति दोष - आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना। 13. विद्या दोष - दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना। 14. मंत्र दोष - मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। 15. चूर्ण दोष - नेत्रों के लिए अंजन चूर्ण और शरीर को भूषित करने वाले भष्म ये
चूर्ण है। इन चूर्गों से आहार उत्पन्न कराना, अतः यह चूर्ण दोष है।
16. भूलकर्म दोष -अवशों का वशीकरण करना और नियुक्त हुए जनों का संयोग
कराना यह मूलकर्म कहा गया है।202