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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
(16) उपसर्ग - किसी प्रकार का उपसर्ग हो जाना। (17) पादान्तर जीव - दोनों पैरों के मध्य से किसी पंचेन्द्रिय जीव का निकल जाना। (18) भाजनसंपात-दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जाना। (19) उच्चार - आहार करते समय मल विसर्जित हो जाना। (20) प्रसवण - मूत्र विसर्जित होना। (21) अभोज्य गृहप्रवेश - आहारार्थ भ्रमण के समय चाण्डालादि के घर में प्रवेश हो जावे
तो यह अन्तराय है। (22) पतन - आहार के समय मूर्छा आदि से साधु का गिर जाना पतन नामक अन्तराय
(23) उपवेशन - किसी कारण से भोजन करते-करते बैठ जाना। (24) सदंश - कुत्ते, बिल्ली आदि के काटने पर। (25) भूमि संस्पर्श - सिद्ध भक्ति कर लेने के बाद यदि हाथ से भूमि का स्पर्श हो जावे। (26) निष्ठीवन - आहार करते समय कफ, यूंक आदि का निकलना। (27) उदर कृमि निर्गमन - यदि उदर से कृमि ( कीडे) निकल पड़े। (28) अदत्त ग्रहण - दाता के दिये बिना ही कोई वस्तु ग्रहण कर लेना। (29) प्रहार - अपने ऊपर या अन्य किसी पर तलवार आदि का प्रहार हो जावे। (30) ग्रामदाह - यदि ग्रामआदि में अग्नि लग जावे। (31.) पादेन किंचित ग्रहण - मुनि द्वारा भूमि पर पड़ी कोई वस्तु पैर से उठाकर ग्रहण
कर लेना। ( 32 ) करेण किंचितग्रहण - साधु के द्वारा अपने ही हाथ से गृहस्थ की किसी वस्तु का
ग्रहण कर लेना।205
इन कारणों के अलावा भोजन के स्थान पर यदि कीड़ी आदि तुच्छ जीव-जन्तु चलते-फिरते अधिक नजर आयें, या ऐसा ही कोई निमित्त उपस्थित हो जाए तो संयमियों को हाथ धोकर वहाँ से दूसरी जगह के लिए आहारार्थ मौन पूर्वक चले जाना चाहिए।206
आहार की मात्रा व काल
श्रमण का प्रतिपल आदर्श एवं विवेक पूर्ण होता है। इसी कारण उनकी आहार की मात्रा भी परिमित होती है। वे स्वच्छन्दता पूर्वक आहार ग्रहण नहीं करते हैं। और जो "लिंगधारी पिण्ड अर्थात् आहार के लिए दौड़ते हैं, आहार के लिए कलह करके उसे खाते हैं, तथा उसके निमित्त परस्पर अन्य से ईर्ष्या करते हैं वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है।207 जैन श्रमण तो दातृ जनों को किसी भी प्रकार की बाधा पहुँचाये बिना कुशलता से भ्रमर की तरह आहार लेते हैं। अतः उनकी भिक्षा वृत्ति को भ्रामरीवृत्ति और आहार को भ्रमराहार कहा है।208 पं. टोडरमल ने भ्रमराहार के विरुद्ध आहार लेने वालों को गृहस्थों की प्राण पीडा करने वाला कहा है। ये आसक्त होकर दातार के प्राण पीडि आहारादिक ग्रहण करते .