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आहार चर्या
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आहार लेते समय, दीवाल, स्तम्भादि आश्रय के बिना अपने पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर तथा समपाद खड़े हो, पैर रखने, जूठन गिरने और दाता के खड़े होने पर तीन प्रकार की भूमि-शुद्धि पूर्वक अपने हाथों की अंजुलि पुट को ही पात्र बनाकर उसी में ही आहार ग्रहण करते हैं।220 एवं उस पाणिपात्र में भूख से कम, यथालब्ध---रस निरपेक्ष तथा मधुमासादि रहित ऐसा शुद्ध अल्प आहार दिन के समय केवल एक बार ग्रहण करते हैं।221 और श्रावकों के ही घर में प्राप्त उस भिक्षा को मौन पूर्वक खड़े होकर लेते हैं।222 मौन के सम्बन्ध में कहा है कि मौन स्वाभिमान की अयाचकत्वरूप व्रत की रक्षा होने पर तथा भोजन विषयक लोलुपता के निरोध से तप को बढ़ाता है, और श्रुतज्ञान के विनय के सम्बन्ध में पुण्य को बढ़ाता है।223 मौनी स्वाभिमानी श्रमण "खाने योग्य पदार्थ की प्राप्ति के लिए अथवा भोजन विषयक इच्छा को प्रगट करने के लिए हुंकारना और ललकारना आदि इशारों को तथा भोजन के पीछे संक्लेश को छोड़ता हुआ, संयम को बढ़ाता हुआ भोजन करता है।224
दिगम्बर परम्परा में श्रमण को पाणिपात्री कहा है, परन्तु श्वेताम्बरीय परम्परा में श्रमण को पात्र रखने का विधान है एवं वह विभिन्न घरों से मांगकर भोजन एकत्रित कर एक जगह बैठकर आहार करता है। श्वे. के अनुसार महावीर भी पहले पाणिपात्री नहीं थे, परन्तु पश्चात् वे पाणिपात्री हो गये थे,225 मुनि नथमल (श्वे. ) जी लिखते हैं कि "भगवान भिक्षा के लिए स्वयं गृहस्थों के घर जाते और वहीं खड़े होकर भोजन करते, तीर्थ स्थापना के पश्चात् भगवान ने श्रमण को एक पात्र रखने की अनुमति दी, अब मुनिजन पात्रों में भिक्षा लेने लगे।226
परन्तु श्वे. मुनि श्री नथमल जी के ये विचार युक्त पूर्ण नहीं हैं, क्योंकि पात्र रखने से परिग्रह का दोष आएगा। अतः जो दोष सचेलकावस्था में थे लगभग वही दोष, पात्र रखने, सुरक्षा, सफाई आदि करने जैसी आपत्तियों को स्थान मिलेगा।
निष्कर्ष रूप में, श्रमणों का तथा उनकी आहार चर्या के सर्वांगीण विश्लेषणात्मक अध्ययन के बाद यह सहज कहा जा सकता है कि मूलगुणों व उत्तरगुणों के सहज पालक साधु, श्रावकों द्वारा नवधा भक्तिपूर्वक समुचित काल व विवेक के साथ एक स्थान पर खडे होकर अपने जीवन को संयम पूर्वक यापन करने के लिए आहार ग्रहण करते हैं। तब वे अपने जीवन को सफल व सार्थक बनाते हैं।