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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
सब दोषों तथा राग-द्वेष कषाय आदि से बचने के लिए साधु अकेला विचरण करता है, अकेला ही कायोत्सर्ग, उठना, बैठना आदि करता है। यहाँ जितनी भी एकाकी चर्या बतलायी है, वह द्रव्य और भाव दोनों से एकाकी होना चाहिए। द्रव्य से एकाकी का अर्थ है-दूसरे श्रमणवश्रावक के सहयोग से निरपेक्ष। भाव से एकाकी का अर्थ है-राग द्वेषादि दोपों से तथा जन-सम्पर्क जनित दोषों से रहित एक मात्र आत्म भावों में या आत्मगुणों में स्थित रहकर विचरण करना। अपना स्थान भी ऐसा चुने जो एकान्त, विजन, पवित्र, शान्त
और स्त्री-पशु नपुंसक के संसर्ग रहित हो। जिसके लिए शास्त्रकार ने आगे निर्देश किया है-"भयमाणस्स विवित्तमासणं।"
यदि साधु एकलविहारी भी हो गया, किन्तु ग्राम के बाहर अथवा कहीं एकान्त में रहकर भी अपना अखाड़ा जमाना शुरू कर दिया, जनता की भीड़ वहाँ भी आने लगी, अथवा वह स्थान एकान्त में होते हुए भी मुर्दाघाट या गन्दगी-डालने का स्थान है तो वह भी ठीक नहीं, अथवा एकान्त होते हुए भी वहाँ आस-पास कल-कारखानों का या अन्य कोई कोलाहल होता है अथवा वह पशुओं को बाँधने का बाड़ा हो, अथवा किसी स्त्री या नपुंसक का वहाँ रात्रिकाल में आवागमन होता हो तो वह विविक्त नहीं कहलाता है। अपवित्र अशान्त, कोलाहलयुक्त या स्त्री-पशु संसक्तजन समुदाय के जमघट वाले स्थान में रहने से साधु के एकाकीचर्या की साधना स्वीकार करने का उद्देश्य पूर्ण नहीं होता। वहाँ उसके स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि साधना में विक्षेप पड़ेगी। लौकिक स्वार्थ- वश सांसारिक लोगों का जमघट शुरू हो गया तो, साधु को उनके संसर्ग से ही अवकाश नहीं मिल पायेगा। इन सब खतरों से बचे रहने के लिए एकचर्या के विशिष्ट साधक को यहाँ सावधान किया है। 128 वीं गाथा में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि "संसग्गी असाहु रायिहिं" अर्थात् राजा आदि राजनीतिज्ञों या सत्ताधारियों के साथ संसर्ग ठीक नहीं है, वह आचारवान् साधु के लिए असमाधि कारक है।241
एकलविहार के सन्दर्भ में हम यह पाते हैं कि, अति पौरुषवन्त को ही एकल विहार का निर्देश है; जैसे राम, बाहुवली आदि एकलविहारी थे या फिर जिनकल्पी अर्हन्त तीर्थंकर एकल विहारी थे। सामान्य जन को एकल विहार का सख्त निषेध है। जबकि आज के काल में एकलविहारी श्रमणों की अधिकता देखी जा सकती है। वस्तुतः ये श्रमणाचार से भ्रष्ट हैं।
विश्राम चर्या (वसतिका स्वरूप):
विहार करते हुए जैन श्रमण स्थान-स्थान पर ठहरते भी जाते हैं। श्रमणों के ठहरने के स्थान को "वसतिका" कहते हैं। वह मनुष्य, तिर्यंच, शीत उष्णादि की बाधाओं से रहित