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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
चले, गलीचे, दरी आदि आवरण युक्त जगह पर न चले। इस प्रकार द्रव्य- क्षेत्र - कालभाव की मर्यादा का पर्याप्त विवेक रखते हुए जैन श्रमण अपना एक-एक कदम बढ़ाते हैं । अतः यह कहने में कोई संकोच नहीं, कि सचमुच में यह व्यक्तित्व ही विवेक का साक्षात् बिम्ब है।
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एकल विहार :
आचार्य के संघ के बिना अकेले रहने अथवा विहार करने को एकल विहार कहते हैं । इस एकल विहार का जैनधर्म में सर्वथा निषेध नहीं किया गया है। मुख्यतः एकदम एकाकी तो जिनकल्पी तीर्थंकर ही होते हैं। परन्तु सामान्य श्रमण को इस प्रकार संघ रहित एकाकी का सर्वथा निषेध किया गया है। इस प्रकार का यदि कोई नग्न, पिच्छि- कमण्डलु लिये भ्रमण करता है, तो उसे जैन श्रमण की चर्या में शंकास्पद माना जा सकता है। तथापि यदि कोई श्रमण, ज्ञान से अधिक किन्हीं अन्य आचार्य के पास विशेष अध्ययन के लिए जाना चाहता है, तो वह एक बार नहीं अपितु अनेक बार अपने संघ प्रमुख से आज्ञा लेता है, और फिर एकाकी नहीं, अपितु चार, तीन या दो मुनि के साथ विहार कर सकता I आचार्य वसुनन्दि ने चार मुनि के साथ जाने वाले को उत्तम मार्ग एवं दो मुनि के साथ जाने वाले को जघन्य मार्ग कहा है। 232 यदि कोई तथाकथित भ्रमण एकदम एकाकी और वह भी किसी आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए न जाकर और बिना आज्ञा के प्रयोजन रहित भ्रमण करता है, तो जैन श्रमणाचार के परिप्रेक्ष्य में उसे श्रमणाभास की संज्ञा दी जा सकती है।
विहार के दो भेद हैं
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गृहीतार्थ और अगृहीतार्थ । तत्वज्ञानी मुनि चारित्र में दृढ़ रहते हुए जो सर्वत्र विचरण करते हैं, उनका विहार प्रथम है और जो अल्प ज्ञानी, चारित्र का पालन करते हुए विचरण करते हैं उनका विहार द्वितीय है। इनके अतिरिक्त अन्य तरह का विहार जिनशासन में अमान्य है। 233
एक विहार का निषेध करते हुए आचार्य वट्टकेर ने कहा कि "सोना, बैठना, ग्रहण करना, शिक्षा, मल त्याग करना इत्यादि कार्यों के समय जिसका स्वच्छन्द गमनागमन है, स्वेच्छा से ही बिना अवसर बोलने में अनुरक्त है ऐसा एकाकी मेरा वैरी भी न हो । गण को छोड़ अकेले विहार करने में इतने दोष आते हैं जैसे गुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, जिनशासन में कलंक, मूर्खता, विव्हलता, कुशीलपना, पार्श्वस्थता । जो स्वच्छन्द विहार करता है वह कांटे, स्थाणु, क्रोध से आये हुये कुत्ते बैल आदि, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्ण, इनके द्वारा मरण दुःख पाता है । शिथिलाचारी मुनि ऋद्धि आदि गौरव वाला, भोगों की इच्छा वाला, कुटिलस्वभावी उद्यमरहित, लोभी, पाप बुद्धि होता हुआ मुनि समूह में रहते हुए भी दूसरे को नहीं चाहता । एकाकी स्वच्छन्द विहारी साधु को आज्ञाकोप, अति प्रसंग,
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