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विश्राम चर्या
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होती है। वसतिका का सामान्यतः स्वरूप बतलाते हुए कहा कि "जो उद्गम, उत्पादन, और एषणा दोषों से रहित हो, जिसमें जन्तुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, जिसमें प्रवेश करना या जिसमें निकलना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो । जिसके किवाड़ व दीवारें मजबूत हो, जो ग्राम के बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकार के गण आ-जा सकते हों। जिसके द्वार खुलें हो या भिड़े हों, जो समभूमि युक्त हो या विषम हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्राम के बाह्य भाग में हो अथवा अन्त में हो, ऐसी वसतिका में मुनि ठहरते हैं। 242 तथा जहाँ अमनोहर या मनोहर स्पर्श, रस- गन्ध-रूप और शब्दों द्वारा अशुभ परिणाम नहीं होते, जहाँ स्वाध्याय व ध्यान में विघ्न नहीं होता । जहाँ रहने से मुनियों की इन्द्रियाँ विषयों की तरफ नहीं दौड़ती, मन की एकाग्रता नष्ट नहीं होती, और ध्यान निर्विघ्न होवे, ऐसी वसतिका में मुनि निवास करते हैं। 243 एवं जिस क्षेत्र में कषाय की उत्पत्ति हो, आदर का अभाव हो, मूर्खता हो, इन्द्रिय विषयों की अधिकता हो, स्त्री आदि बहुत जनों का संसर्ग हो, क्लेश व उपसर्ग हो, ऐसे क्षेत्र को मुनि अवश्य छोड़ दें। 244
मूलाचार व ज्ञानार्णव की यह बात बहुत तार्किक व मनावैज्ञानिक थी । इसी कारण शान्ति व वीतरागता का ग्राहक दीक्षार्थी, निर्द्वन्द हो शान्त वन रूप बाजार में इसका निराबाध रूप से व्यापार करता था । तथा विषय- कषाय रूप वणिकों, व उनके व्यापारों से अपने को सहज दूर रखता था । इस तरह अमूल्य जीवन को स्वाभाविक रूप से पवित्र रखता था । इसमें वस्तुतः कोई आश्चर्य व बडप्पन जैसी बात भी नहीं है। क्योंकि पापोत्पादक पतित विषय - कषायों की सामग्री का जब शहरों में ही बहुत सम्मान व मूल्यांकन होता है, तो वे क्यों निर्जन वन में जाना पसन्द करेंगे। भोगों के स्थल शहरों में एक-एक भोग सामग्री को प्राप्त करने के लिए असंख्य प्राणी अपना सर्वस्व समर्पण करने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहे, जिससे उनकी निरन्तर कमी ही रहती हो, तो उन्हें यह सोचने का भी अवकाश कहाँ कि वे जंगल की ओर जावे; और इस कारण साधु स्वाभाविक रूप से विषय- कषायों से दूर होकर पवित्र रह जाते हैं। अतः उनकी ऐसी सहज पवित्रता, प्राणी मात्र के लिए सहज पूज्य हो जाती है । परन्तु उस समय तो मानव जगत की ही यह एक काल रात्रि थी कि जब ऐसा उत्कृष्ट आदर्श ही विषय कषाय के क्रीडा-स्थल शहरों में रहना पसन्द कर रहा होगा। हमें ऐसे निष्कृष्ट काल में भारवि को याद करके सन्ताप कम कर लेना चाहिए; जिसमें भी युधिष्ठिर को सम्बोधन के माध्यम से एक अत्यन्त मार्मिक तथ्य प्रस्तुत करते हैं, देखें
चतुसृष्वपि ते विवेकिनी नृप विद्यासु निरूढिमागता । कथमेत्य मतिर्विपर्ययं करिणी पड. मिवावसीदति ।। 6 ।।245