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आहार चर्या
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तो अधः कर्मयुक्त आहार में जीवराशि खाने वाले श्रमण भी नीच क्यों नहीं कहलायेंगे ? 198
आहार में सभी दोषों से ज्यादा दोष अधः कर्म का होता है। जो महादोष कहलाता है । इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना, एवं झाडू लगाना है, ऐसे पंचसूना नाम के आरम्भ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। 199 परन्तु इन दोनों में यदि साधु लग जाता है तो वह भी मूलस्थान ( गृहस्थादशा) को प्राप्त होता है । यह दोष 46 दोषों से अतिरिक्त महादोष मूलाचार में कहा है।
गवेषणा में उद्गम और उत्पादन के 16 दोष निम्न हैं
उद्गम के 16 भेद निम्नतः हैं
1. औदेशिक -
2. अध्यधि -
3. पूतिकर्मदोष - 4. मिश्रदोष -
5. स्थापित
6. बलिदोष
7. प्रावर्तित 8. प्राविष्करण
-
9. क्रीतितर
10. प्रामुष्य - 11. परिवर्त
12. अभिघट -
उद्भिन्न
14. मालारोहण -
13,
-
15. अछेद्य · 16. अनीशार्थ -
साधु पाखंडी आदि के निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश्य है ।
आहारार्थ साधुओं को आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक चावलादि मिलाना ।
प्रासु तथा अप्रासुक को मिश्र कर देना । असंयतों के साथ साधु का आहार देना ।
अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना ।
यक्ष देवता आदि के लिए बने हुए में से अवशिष्ट को देना ।
की वृद्धि या हानि करके आहार देना ।
आहारार्थ साधु के आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन आदि साफ करना ।
उसी समय वस्तु खरीद कर लाना ।
ऋण लेकर आहार लाकर देना ।
धान, घी, आदि देकर बदले में अन्य धान्य आदि लेकर आहार
बनाना ।
पंक्तिबद्ध सात घर से अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना ।
बर्तन के ढक्कन आदि को खोलकर अर्थात् सील, मुहर, चपड़ी आदि हटाकर वस्तु निकाल कर देना ।
सीढ़ी, नसेनी से चढ़कर वस्तु लाकर देना । यह वसतिका का दोष भी है, जहाँ सीढी चढकर जाने वाली दूसरी-तीसरी मंजिल पर रहने का निषेध किया गया है | 200
राजा, समाज आदि के भय से आहार देना ।
अप्रधान दातारों से दिया हुआ, आहार लेना ।