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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
जल ग्रहण के विषय में उष्ण एवं प्रासुक जल का प्रयोग श्रमण के लिए विहित है। दशवकालिक में "तत्तफासुय" (तप्त प्रासुक) तप्त अर्थात् पर्याप्त मात्रा में उबला होने पर जो प्रासुक हो वैसे उष्णादिक के प्रयोग का विधान मिलता है। तथा अन्तरिक्ष में और जलाशय, ओले, बरसात के जल और हिम से सेवन का निषेध किया गया है।191 मूलाचार में भी सचित्त जल के अनेक प्रकारों का उल्लेख है।192 उत्तराध्ययन में कहा है कि- अनाचार से घृणा करने वाला लज्जावान् संयमी प्यास से पीडित होने पर सचित्त जल का सेवन न करे किन्तु प्रासुक पानी की गवेषणा करे। निर्जन मार्ग से जाता हुआ मुनि तीव्र प्यास से व्याकुल हो जाए तथा मुंह सूखने लगे तो भी दीनता रहित होकर कष्ट सहन करे।193 इस तरह श्रमण को प्रासुक जल के प्रयोग का विवेक आवश्यकीय कर्तव्य है।
आहार की शुद्धता का सम्बन्ध एषणा समिति से है। अतः आहार के अन्वेषण, ग्रहण और उपभोग में संयम धर्म पूर्वक सावधानी आवश्यक है।
एषणा तीन तरह की होती है
गवेषणा - अर्थात् सोलह उद्गम और सोलह उत्पादन दोषों के शोधन पूर्वक शुद्ध आहार की शोध करना।
ग्रहणेषणा - एषणा के शंकित आदि दस दोषों के शोधनपूर्वक आहार लेना।
परिभोगेषण - (ग्रारोषणा) संयोजना, प्रमाणातिक्रान्त, अंगार, तथा धूम- इन चार दोषों को टालकर भोजन करना चाहिए।194
आचार्य वट्टकेर ने स्पष्ट कहा है कि जिस द्रव्य से जीव निकल गये हों वह प्रासुक है। किन्तु यदि वह द्रव्य श्रमण के लिए बनाया गया हो तो वह शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध है। कारण, कि जैसे मछलियों के लिए जल में मादक वस्तु डालने पर उससे मछलियाँ ही विह्वल होती हैं, मेंढक नहींइसी प्रकार दूसरे के लिए बनाये गये भोजन आदि में से ग्रहण करते हुए भी मुनि विशुद्ध रहते हैं। अर्थात् मुनि अधःकर्म आदि दोष से दूषित नहीं होते।195 किन्तु जिनकी प्रवृत्ति शुद्ध आहार के अन्वेषण की ओर है, उनको यदि कदाचित् अशुद्ध अधःकर्म युक्त आहार ग्रहण हो जाता है तो वह आहार भी उनके लिए शुद्ध है।196 किन्तु जिन साधुओं की प्रवृत्ति अधःकर्म की ओर है, वे यदि प्रासुक द्रव्य के ग्रहण में अशुद्ध भाव करते हैं, तो वे कर्मबन्ध के भागी हैं। खडे होकर मौनपूर्वक वीरासन से तप, ध्यान आदि करने वाला श्रमण भी यदि अधःकर्मयुक्त आहार में प्रवृत्त होता है तो उसके सभी योग, वन, शून्यघर, पर्वत की गुफा, तथा वृक्षमूल-इनमें निवास आदि सब व्यर्थ है।197 तथा यदि सिंह व्याघ्रादि, एक, दो, या तीन मृगों को खाने पर "नीच" कहलाते हैं