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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
छे एम टीकाकार (संस्कृत टीकाकार शीलाचार्य) लखे छे।"
अर्थात् किसी समय कोई साधु अति प्रभावी और लोलुपी होकर मद्य, मांस भी खाना चाहे उसके लिए यह उल्लेख है ।
इसी प्रकार इसी संस्करण में :
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" से भिक्खुवा आव समाणे सेज्जं पुव्वं जाठोज्जा मंसं वा मच्छं वा मज्जिज्जमाणं पहए तेल्लपूययं वा आएसाए उलक्खडिज्जमाणं पेहाएणो खंद खंदणो उवसंकमित्तु ओमासेज्जा । णन्नत्थ गिला णणीसाए। 188 इसकी इस संस्करण में गुजराती टीका, मुनिए मांस के मत्स्य मुंजाता जोई अथवा परोणाना माटे पूरोओ तेलमा तलाती जादू तेना सारू गृहस्थ पाले उतावला दौडी ते चीजों मांगती नहीं। अगर मांगगी मागवनार मुनिना सारूं खपती होय तो बात।"
अर्थात् मुनि किसी मनुष्य को मांस या मछली खाता हुआ देखकर या मेहमान के लिए तेल में तलती हुयी पूडियाँ देखकर उनको लेने के लिए जल्दी-जल्दी दौडकर उन चीजों को भोगे नहीं। यदि किसी रोगी मुनि के लिए उन चीजों की आवश्यकता हो तो अन्य बात है।
परन्तु परवर्ती अन्य प्रकाशकों के सम्पादकों ने इस प्रकरण में अपनी तरफ से शब्द संयोजन कर अर्थ किया है। यहीं पर आगम प्रकाशन समिति व्याबर संस्करण सन् 1980 की प्रति में निम्नतः अर्थ है ।
"गृहस्थ के घर में साधु या साध्वी के प्रवेश करने पर उसे यह ज्ञात हो जाए कि वहाँ अपने किसी अतिथि के लिए मांस या मत्स्य भूना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाये जा रहे हैं, इसे देखकर वह अतिशीघ्रता से पास में जाकर याचना न करे। रुग्ण साधु के लिए अत्यावश्यक हो तो किसी पथ्यानुकूल सात्विक आहार की याचना कर सकता है। "
यहाँ पर "पथ्यानुकूल सात्विक आहार" में सात्विक शब्द जोडा गया है, क्योंकि मूल ग्रन्थ में कथित आहारों में असात्विक आहार भी है। उनको भी ग्रहण का कथन है परन्तु इन सम्पादक ने उसको छिपाने का प्रयास किया है। प्रसिद्ध वर्तमान श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान श्री दलसुख भाई मालवणिया ने भी अप्रत्यक्ष रूप में ऐसे आहार को भी स्वीकृत किया है- "जैन भिक्षु के लिए यह सामान्य नियम है कि अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम छोटे-बडे जीवों से युक्त हो, काई व्याप्त हो, गेहूँ आदि के दानों से सहित हो, हरी वनस्पति आदि से मिश्रित हो, ठंडे पानी से भिगोया हुआ हो, जीव युक्त हो, रजवाला हो, उसे भिक्षु स्वीकार न करें। कदाचित् असावधानी से ऐसा भोजन आ भी जाए तो उसमें से जीव जंतु आदि निकालकर विवेक पूर्वक उसका उपयोग करें।
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