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आहार चर्या
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णिच्चुच्चमज्झिम कुलेसु - वट्टकेर के इसी कथन के समान भाव के रूप में भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में "ज्येष्ठ-अल्प-मध्यमानि सममेवाटेत्" अर्थात् बडे-छोटे और मध्यम कुलों में एक समान भ्रमण करे-अर्थ किया है।164 दशवैकालिक चूर्णि में सम्बन्धियों के समवाय या घर को कुल कहा गया है।165 प्रासाद, हवेली, आदि विशालभवन द्रव्य से उच्चकुल तथा जाति, धन विद्या आदि समृद्र जनों के भवन भाव से उच्चकुल कहलाते हैं। इसी तरह तृण, कुटी, झोपडी आदि द्रव्य से निम्न या कवच ( निम्न)
कुल कहलाते हैं।166
वस्तुतः आहारार्थ प्रवेश के विषय में भोज्य-अभोज्य घरों का विशेष ध्यान रखा गया है। क्योंकि अभोज्य घर में प्रवेश को आहार का एक अन्तराय माना गया है। अभोज्य घर से तात्पर्य हिंसाजीवी, पतित, व्रत विहीन, संस्कार विहीन तथा निंदित घर आदि समझना चाहिए।
विजयोदया में दरिद्रकुलों में और आचारहीन सम्पन्न कुलों में प्रवेश का निषेध किया है।168 कारण कि, दरिद्र कुल में उस घर के व्यक्तियों को स्वयं अपने उदरपूर्ति की समस्या रहती है, तब वे मुनि को नवधा- भक्ति से आहार कराने में कैसे समर्थ होंगे ? इसी प्रकार जिस घर में नाचना गाना होता हो, झंडियाँ लगी हों, एवं शराबी, वेश्या, लोक में निन्दित कुल यज्ञशाला, दानशाला, विवाहवाला घर तथा जिन गृहों में जाने की मनाई हो, और द्वारपालादिक हो, आगे रक्षक खडा हो एवं सब कोई न जा सकता हो ऐसे जगहों में न जाए। इसी प्रकार जो स्त्री बालक को दूध पिलाती हो या गर्भिणी हो, रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ, अन्धा, गूंगा, दुर्बल, डरपोक, शंकालु अतिनिकटवर्ती, दूरवर्ती मनुष्य के द्वारा जिसने लज्जा से अपना मुख फेर लिया हो, या मुख पर धूंघट डाला है ऐसी स्त्री के द्वारा, जिसका पैर जूते में रखा हो, या जो ऊंचे स्थान पर खडा हो, ऐसे व्यक्तियों के द्वारा आहार ग्रहण न करे।169 आहार योग्य घर में भी एक साथ अनेक साधुओं के आहार की व्यवस्था का स्वरूप बतलाते हुए आचार्य अमितगति अपने योगसार में कहते हैं कि -
पिण्डः पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते। दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुडक्ले चेच्छेदभाग्यतिः ।। 8/64।।
अर्थात् देते समय गृहस्थ को चाहिए कि वह जिस मुनि को देने के लिए हाथ में आहार ले उसे उसी मुनि को दे अन्य मुनि को नहीं। यदि कदाचित् अन्य को भी दे दिया तो मुनि को खाना न चाहिए क्योंकि यदि मुनि उसे खा लेगा तो वह छेद प्रायश्चित का भागी गिना जायेगा।
इस सम्बन्ध में आचार्य रविषेण . पद्मपुराण में कहते है कि "भिक्षां परगृहे लब्धां