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आहार चर्या
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आहार को "पिण्ड" शब्द से कहा गया है।107 आचार्य वट्टकेर ने "पिण्डशुद्धि" का "आहार शुद्धि" अर्थ किया है।108
आहार : स्वरूप एवं भेद :
आहार शब्द "आ" उपसर्गपूर्वक "ह हरणे" धातु से घज् प्रत्यय पूर्वक बना है जिसका अर्थ, लाना, ले आना या निकट लाना है तथा वामन शिवराम आप्टे ने अपने "संस्कृत हिन्दी कोष" में इसका अर्थ "भोजन करना" भी किया है। अतः यहाँ तो आहार का सामान्य अर्थ भोजन से ही इष्ट है। आचार्य पूज्यपाद ने आहार शब्द की व्याख्या में कहा कि तीन (औदारिक, वैक्रियक और आहारक) और छह पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, ज्ञानप्राण, भाषा और मन ) के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के ग्रहण करने को "आहार"
कहते हैं।109
वस्तुतः शरीर को रत्नत्रयरूपी धर्म का व्यवहार से आधार कहा है। अतः आहार-पान आदि के द्वारा इस शरीर की स्थिति बनाये रखने के लिए इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, जिससे इन्द्रियां वश में रहें और अनादि काल से सम्बद्ध तृष्णा के वशीभूत होकर वे कुमार्ग की ओर न ले जावें। 10 संसार के सभी प्राणियों के जीवन का आधार आहार भी है फिर चाहे वह किसी भी रूप में ही क्यों न कहा जावे, सभी प्राणी अपनी-अपनी शारीरिक स्थिति व सामर्थ्य के अनुसार ही आहार ग्रहण करते हैं। आहार संज्ञा (अभिलापा) के चार कारण गोम्मटसार में कहे हैं-(1) आहार के देखने से, (2) उसकी तरफ मन लगाने से (3) पेट के खाली होने से, (4) असाता वेदनीय कर्म की उदय, एवं उदीरणा होने से आहार ग्रहण प्रायः देखा जाता है।111
एषणीय आहार ग्रहण के मार्गों की चर्चा प्रसंग में तीन प्रकार के भाव आहार बताये
1. ओज आहार - जन्म के पूर्व माता के गर्भ में सर्वप्रथम गृहीत आहार जो मात्र शरीर
पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाता है। 2. रोम आहार - जो त्वचा या रोमकूप द्वारा ग्रहण किया जाता है, जैसे हवा आदि। 3. प्रक्षेप ( प्रक्षिप्त) आहार - जो मुख जिह्वादि द्वारा ग्रहण किया जाता है।112
मूलाचार तथा अन्य आचार शास्त्र के प्रायः सभी जैन ग्रन्थों में आहार के चार भेद किये हैं-(1) अशन, (2) पान, (3) खाद्य, (4) स्वाद्य। इनमें जो भूख को मिटाता है वह अशन है जैसे अन्नादिक। जो दस प्रकार के प्राणों पर उपकार करता है, उन्हें जीवन देता है वह पान या पेय है जैसे जल, दूध आदि। जो रस पूर्वक खाया जाता है खाद्य या खादिम है जैसे मिष्ठान्न फलादिक। तथा जो आस्वादयुक्त होता है वह स्वाद्य है जैसे लोंग, इलायची आदि।