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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
2. श्वभ्र पूरण
सरस-नीरस आदि रूप आहार से इस पेट रूपी गढ्ढे को भर लेना श्वभ्रपूरण आहार विधि है। इसे गर्त पूरण आहार विधि भी कहते हैं।140
3. भ्रामरी -
जैसे भ्रमर, बिना म्लान किये ही द्रुम पुष्पों में यह निश्चित किये बिना कि मैं अमुक पुष्प का ही पान करूँगा, वह किसी भी द्रुम पुष्प से थोडा रस पीकर अपने को तृप्त कर लेता है वैसे ही श्रमण भोजन वृत्ति में यह नियत नहीं करता कि मैं अमुक वस्तु का आहार ग्रहण करूँगा।अतः आहारदाता पर भार रूप बाधा पहुँचाये बिना कुशलता से भ्रमर की तरह निर्दोष आहार ग्रहण करना ही भ्रामरी वृत्ति है। 41
यथार्थतः भ्रमर अवधजीवी होता है। वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी प्रकार का समारम्भ, उपमर्दन या हनन नहीं करता। वैसे ही श्रमण साधक भी अवधजीवी है-किसी तरह का पचन-पाचन और उपमर्दन नहीं करता, भ्रमर पुष्पों से स्वभाव सिद्ध रस ग्रहण करता है। उसी प्रकार श्रमण, साधक गृहस्थ के घरों से जहाँ आहार जल आदि स्वाभाविक रूप से बनते हैं, वहीं प्रासुक आहार ग्रहण करता है तथा जैसे मधुकर उतना ही रस ग्रहण करता है, जितना कि उदरपूर्ति के लिए आवश्यक होता है, वैसे ही श्रमण जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक उतना ही आहार ग्रहण करें जितना कि उसे आवश्यक हो। आवश्यकता से अधिक आहार न लेवें।
इस प्रकार श्रमण को भ्रामरी वृत्ति से आहार-ग्रहण की बात कहकर यह बताया गया है कि, अहिंसात्मक आराधना करने वाला श्रमण अपने शारीरिक स्थिति के लिए भी किंचित हिंसा न करे, वह अल्पाहार ले, संयम और तपोमय जीवन व्यतीत करे। श्रमणों के परिणाम सुधार का ही निरन्तर प्रयत्न होता है। जिस क्रिया में राग-द्वेष न हो उसी क्रिया रूप वे प्रवर्तन करते हैं।
आहार का समय :
सूर्योदय के तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी शेष रहने पर अर्थात् सूर्यास्त होने से तीन घडी पूर्व तक का काल श्रमण के आहार- ग्रहण का समय माना गया है। आहार के इस काल में एक मुहुर्त में आहार ग्रहण उत्कृष्ट काल या उत्कृष्ट आचरण माना गया है। दो मुहुर्त में मध्यम काल या मध्यम आचरण तथा तीन मुहुर्त में आहार ग्रहण जघन्य आचरण कहा गया है। यह काल का परिमाण सिद्ध भक्ति करने के अनन्तर आहार ग्रहण करने का है न कि आहार के लिए भ्रमण करते हुए विधि न मिलने के पहले का भी। अर्थात् यदि साधु आहार हेतु भ्रमण कर रहे हैं उस समय का काल इसमें शामिल नहीं