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आहार चर्या
209 है। एक भक्त मूलगुण के अन्तर्गत इसी विधान की चर्चा करते हुए भोजन ग्रहण का समय दिन का मध्याह्न माना है। मूलाचार- वृत्ति में बताया है कि सूर्योदय की दो घड़ी निकलने पर आवश्यक क्रियाएं तथा स्वाध्याय आदि करने के पश्चात् मध्याह्नकाल की देववन्दना करे, तत्पश्चात् बालकों के भरे पेट से तथा अन्य लिंगियों से भिक्षा का समय ज्ञात कर ले और गृहस्थों के घरों से जब धुंआ आदि निकलना बन्द हो जाए, तथा मूसल आदि के शब्द शान्त हो जाएं, तब गोचरी के लिए प्रवेश करना चाहिए।144
भगवती-आराधना की विजयोदया टीका में कहा है कि तीन प्रकार के आहारकाल के विषय में तीन दृष्टियों से विचार करना चाहिए-भिक्षा काल, बुभुक्षा काल और अवग्रह काल। इसका विवेचन करते हुए कहा कि
1. भिक्षाकाल -
अमुक मासों में ग्राम नगर आदि में अमुक समय भोजन बनता है, अथवा अमुक काल या अमुक मुहल्ले का अमुक समय भोजन का है, इस प्रकार इच्छा के प्रमाण आदि से भिक्षा का काल जानना चाहिए।
2. बुभुक्षाकाल -
मेरी भूख आज मन्द है या तीव्र है इस प्रकार अपने शरीर की स्थिति की परीक्षा करनी चाहिए।
3. अवग्रहकाल - ____ मैंने पहले यह नियम लिया था कि, इस प्रकार का आहार में नहीं लूँगा और आज मेरा यह नियम है। इस प्रकार विचार करना चाहिए।145
श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र में स्वाध्याय, ध्यान, भिक्षाचर्या को उत्तरगुण कहा है।146 तथा इसके पालन की दिनचर्या चार काल विभागों में विभक्त किया है। तदनुसार श्रमण को प्रथम प्रहर में पुनः स्वाध्याय करना चाहिए। इसके अनुसार श्रमण के भिक्षा का समय तृतीय प्रहर माना है। परन्तु सभी पक्षों से विचार करने पर मूलाचार में कथित आहार का समय सर्वाधिक उपयुक्त है।
पूर्व में अहिंसा महाव्रत की भावना में "आलोकितपान भोजन" के अन्तर्गत यह कहा गया है कि श्रमण दिन के प्रकाश में ही एक बार आहार ग्रहण करते हैं। दशाश्रुत स्कन्ध (श्वे) के अनुसार जो भिक्षु सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंका में पड़कर आहार-ग्रहण करते हैं, उनको रात्रि भोजन ग्रहण का दोष लगता है।147 दशवैकालिक में कहा है कि सूर्यास्त से लेकर पुनः जब तक सूर्य पूर्व में न निकल आए, तब तक सब प्रकार के आहार