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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
की मन में भी इच्छा न करे। 148 रात्रि भोजन से पाँच महाव्रत भंग होते हैं और अष्ट प्रवचनमाता के पालन में मलिनता आती है। यदि मुनि रात्रि में आहारार्थ निकले हों, तो गृहस्थों या किसी के भी मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि मुनि वेश में यह कोई चोर हो सकता है। इसके अलावा विपत्ति के भी बहुत प्रसंग आते हैं। अतः महाव्रतों की रक्षा, अष्ट प्रवचनमाता तथा महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं के परिपालन हेतु रात्रि भोजन का त्याग तो प्रारंभिक कर्तव्य है। 149 अतः भिक्षागमन के योग्य काल को छोडकर अन्य समय या विकाल में आहारार्थ निकलना निषिद्ध है । दशवैकालिक में यह भी कहा है कि भिक्षा का काल होने पर भी यदि वर्षा हो रही हो, कुहरा फैला हो, आँधी चल रही हो, भ्रमर कीट आदि तिर्यन्च जीव छा रहे हों, तब श्रमण को भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। 150 इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण के आहार गमन काल में भी अत्यन्त विवेक का दर्शन होता है जो कि श्रमण की अहिंसक वृत्ति को सिद्ध करता है ।
आहारार्थ गमनविधि :
श्रमण का आहार के समय पर जितना विवेक अपेक्षित है उतना ही उसके लिए विवेक पूर्वक गमन भी अपेक्षित होता है। विधिपूर्वक किया गया कार्य ही फलीभूत होता है। अतः मूलाचारकार ने आहारार्थ गमन करने वाले श्रमण को इन पाँच तथ्यों की रक्षा करने के लिए निर्देशित किया है:
1. जिनशासन की रक्षा एवं उसकी आज्ञा का पालन ।
2. स्वेच्छावृत्ति का त्याग ।
3.
4.
5.
सम्यक्त्वानुकूल आचरण
रत्नत्रय स्वरूप आत्मा की रक्षा।
सयम रक्षा ।
इन पाँचों में से किसी में भी किंचित् दोष का प्रसंग आए, या बाधा की सम्भावना हो तो श्रमण को तत्काल आहार का त्याग कर देना चाहिए। 151 भिक्षाचर्या में प्रविष्ट हुए श्रमण मनोगुप्ति वचन गुप्ति और कायगुप्ति रूप त्रिगुप्ति, मूलगुण, उत्तरगुण, शील, संयम आदि की रक्षा करते हुए तथा शरीर से वैराग्य, परिग्रह से वैराग्य और संसार से वैराग्य का विचार करते हुए विचरण करें। 152 मूलाचार - वृत्ति में आहारार्थ गमन विधि बतलाते हुए कहा कि, सूर्योदय की जब दो घड़ी बीत जावे तब देववन्दना करने के पश्चात् श्रुतभक्ति एवं गुरुभक्ति पूर्वक स्वाध्याय को ग्रहण करके सिद्धान्त आदि की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन आदि करे, जब मध्याह्न काल होने में दो घड़ी समय शेष रहे तब आदर के साथ सिद्धभक्ति पूर्वक स्वाध्याय को समाप्त करे । वसतिका से दूर जाकर समिति पूर्वक मलमूत्रादि बाधा दूर करे। तब शरीर को पूर्वापर देखकर हाथ-पैर आदि का प्रक्षालन करके, कमण्डलु और पिच्छि का ग्रहण करके मध्याह्न काल की देववन्दना करे । तत्पश्चात् योग्य समय जानकर आहारार्थ प्रवेश करना चाहिए। 153 श्रमण- चर्या में गोचरी के पूर्व