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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
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आहार का ग्रहण- त्याग • आचार्य वट्टकेर आहार ग्रहण के छः कारण बतलाते हैं। ( 1 ) वेदना ( क्षुधाशान्ति ) ( 2 ) वैयावृत्य ( 3 ) क्रियार्थ ( षडावश्यकादि क्रियाओं का पालन ) ( 4 ) संयमार्थ (5) प्राणचिन्ता (प्राणों की रक्षा) तथा (6) धर्मचिन्ता 126 इन छह कारणों के लिए जो यति अशन, खाद्य, लेह्य और पेय-ये चार प्रकार के आहार ग्रहण करता है वह चारित्र धर्म का पालक 1
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आहार त्याग के भी छह कारण हैं- (1) आतंक (आकस्मिक व्याधि ज्वर आदि होने) (2 ) उपसर्ग (3 ) ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा) ( 4 ) प्राणिदया ( 5 ) तप तथा ( 6 ) शरीर परित्याग 127 इन छह कारणों में से किसी एक के भी उपस्थित होने पर वह आहार का त्याग भी करता है तो वह धर्मोपार्जन ही है। 128 वसुनन्दि ने कहा है कि आहार - त्याग के कारण उपस्थित होने पर भले ही क्षुधा वेदनादि आहार ग्रहण के कारण उपस्थित हों तो भी आहार त्याग कर देना चाहिए। 128
आहार ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त छह-छह कारणों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग तथा उत्तराध्ययन सूत्र में भी समान ही है। आहार ग्रहण के तृतीयकारण "क्रियार्थ" (किरियागए) के स्थान पर स्थानांग तथा उत्तराध्ययन में ईर्यासमिति के शोधन के लिए ( इरियट्ठाए ) पाठ मिलता है। तथा आहार त्याग के अन्तिम कारण "शरीर त्याग" के लिए आहार का व्युच्छेद के स्थान पर "शरीर विच्छेद के लिए" ( सरीर व्रोच्छेयण ट्ठाए ) पाठ मिलता है। 130
भिक्षाचर्या के नाम :
सामान्यतः भिक्षा तीन प्रकार होते हैं - दीनवृत्ति, पौरुषघ्नी और सर्व संपत्करी । अनाथ, दीनहीन एवं अपंग व्यक्तियों द्वारा मजबूरीवश माँगकर उदरपूर्ति करने को दीनवृत्ति कहा जाता है। परिश्रमी व्यक्ति भी यदि भिक्षा से उदरपूर्ति करने लग जाए तो वह पौरुषनी भिक्षा है। संयम के धारक व्यक्ति द्वारा अहिंसा महाव्रत के विशुद्ध पालन एवं संयम यात्रा के निर्विघ्न निर्वाह के उद्देश्य से सहज प्राप्त आहार भ्रामरी आदि वृत्तियों के द्वारा ग्रहण करना सर्व संपत्करी भिक्षा है।
प्रस्तुत प्रसंग में सर्व-संपत्करी अर्थात् श्रमण भिक्षा-चर्या ही यहाँ प्रतिपाद्य विषय है। श्रमणों की भिक्षावृत्ति के निम्न उल्लेख मिलते हैं। उदराग्निप्रशमन, अक्षप्रेक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण या गर्त पूरण, भ्रामरी या मधुकरी वृत्ति । अनगार - धर्मामृत में भिक्षाशुद्धि के वर्णन प्रसंग में ये पाँच भिक्षावृत्ति के नाम बतलाये हैं। 132
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