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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
मूलाचार में इस विभाजन को पर्यायार्थिक नय की संज्ञा देते हुए कहा है कि, यों तो आहार के उपर्युक्त चार भेद हैं; किन्तु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी आहार अशन हैं, सभी आहार पान है, सभी खाद्य और सभी स्वाद्य हैं। 113
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सूत्र कृतांग निर्युक्ति ( श्वे. ) का विभाजन आहारग्रहण के मार्गों पर आधारित है। किन्तु वृहत्कल्पभाप्य (श्वे. ) में अन्न के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन भेद बताये गये हैं। इनमें जघन्य अन्न के अन्तर्गत आहार के तीन भेद हैं। 114 (1 ) अन्नाहार-गेहूँ, चना आदि (2) प्रान्ताहार-स्वभावतः रसहीन, निः सत्वद्रव्य, और रुक्षाहार- पूर्णतः स्नेह विहीन
आहार ।
प्रमुख ग्रन्थों के आधार पर सभी प्रकार के आहार मुख्यतः चार प्रकार से विभक्त हैं (1 ) कर्माहारादि (2) खाद्यादि ( 3 ) कांजी आदि और (4) पानकादि। इन चारों के अन्तर्गत किन-किन आहारों को अन्तर्भूत किया जा सकता है उन्हें निम्नलिखित विभाजन एवं चार्ट के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है।
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कर्माहारादि
(1)
कर्माहार
नो कर्माहार
कवलाहार
लेप्याहार
ओजाहार
मानसाहार
खाद्यादि
(2)
अशन
पान
भक्ष्य या खाद्य
लेह्य
स्वाद्य
आहार
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कांजी आदि
(3)
कांजी
आंवली या आचम्ल
वेलडी
एकलटाना
पानकादि
(4)
स्वच्छ
वहल
लेवल
अलेवड
ससिक्थ
असिक्थ
आहार ग्रहण का प्रयोजन
"यद्यपि मुनियों के बाह्य क्रिया से तो प्रयोजन नहीं है, और अट्ठाइस मूलगुण ग्रहण किया है, उसमें तो अतिचार नहीं लगाते हैं, और तदुपरान्त भी क्रिया ग्रहण करते हैं, वह उपयोग लगने के अनुसार करते हैं। अतः यदि वे भोजन करके शरीर को प्रबल हुआ जाने, तो ऐसा विचार करते हैं कि, यदि शरीर प्रबल होगा तो प्रमाद उत्पन्न करेगा । अतः एक दो दिन भोजन का त्याग ही करना उचित है। और यदि भोजन के त्याग से शरीर को क्षीण हुआ जाने तो ऐसा विचार करते हैं कि, यदि यह शरीर शिथिल होगा तो परिणामों को शिथिल करेगा और जब परिणाम शिथिल होंगे तो ध्यान- अध्ययन नहीं सधेगा। इस शरीर से मेरा कोई बैर तो है नहीं, यदि बैर हो तो उसका शोषण ही करते रहें । परन्तु मुनियों को